पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी
सेवक को जो मिलता है वह बड़े-बड़े तपस्वियों को भी नहीं मिलता। हिरण्यकशिपु तपस्वी था, सोने का हिरण्यपुर मिला लेकिन सेविका शबरी को जो साकार, निराकार राम का सुख मिला वह हिरण्यकशिपु ने कहाँ देखा, रावण ने कहाँ पाया ! मुझे मेरे गुरुदेव और उनके दैवी कार्य की सेवा से जो मिला है, वह बेचारे रावण को कहाँ था ! सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे, दिखावटी सेवक तो कई आये, कई गये। बहाने बनाने वाले सेवक घुस जाते हैं, तो गड़बड़ी करते हैं।
‘ऋषि प्रसाद’ में जो सच्चे हृदय से सेवा करेगा तो उसका उद्देश्य होगा कि हम क्या चाहते हैं वह नहीं, वे क्या चाहते हैं और उनका कैसे मंगल हो – सेवक का यह उद्देश्य होता है। आप क्या चाहते हो और आपका कैसे मंगल हो – यह मेरी सेवा का उद्देश्य होना चाहिए। आपको पटाकर दान-दक्षिणा ले लूँ तो सेवा के बहाने में जन्म-मरण के चक्कर में जा रहा हूँ। सेवा में बड़ी सावधानी चाहिए। जो प्रेमी होता है, जिसके जीवन में सद्गुरुओं का सत्संग होता है, मंत्रदीक्षा होती है, भगवान का और मनुष्य-जीवन का महत्त्व समझता है वही सेवा से लाभ उठाता है। बाकी के सेवा से लाभ क्या उठाते हैं, सेवा से मुसीबत मोल लेते हैं। ‘मैं फलाना हूँ, मैं फलाना हूँ…’ करके वासना बढ़ाते हैं और संसार में डूब मरते हैं। जो सेवा संसार में डुबा दे, वह सेवा नहीं है। वह तो मुसीबत बुलाने वाली चालाकी है। जो संसार की आसक्ति मिटाकर अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। अपना शरीर भी नहीं रहेगा। हम दूसरों के काम आयें। तो अपने आप…..
अपनी चाह छोड़ दे, दूसरे की भलाई में ईमानदारी से लग जाय तो उसके दोनों हाथों में लड्डू ! यहाँ भी मौज, वहाँ भी मौज !
पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं।
तो माँ की, पति की, पत्नी की, समाज की सेवा करे लेकिन बदला न चाहे तो उसका कर्मयोग हो जायेगा, उसकी भक्ति में योग आ जायेगा, उसके ज्ञान में भगवान का योग आ जायेगा। उसके जीवन में सभी क्षेत्रों में आनंद है।
‘क्या करें, मुझे सफलता नहीं मिलती….’ तो टट्टू ! तू सफलता के लिए ही करता है, वाहवाही के लिए करता है। जिसमें जितना वाहवाही का स्वार्थ होता है उतना ही वह विफल होता है और जितना दूसरे की भलाई का उद्देश्य होता है उतना ही वह सफल होता है। ‘मैं सफल नहीं होता हूँ, मैं सफल नहीं होता हूँ….’ होगा भी नहीं। स्वार्थी आदमी सफल दिखें, फिर भी अंदर से अशांत होंगे। शराब पीकर और क्लबों में जाकर सुख ढूँढेंगे। क्या खाक तुमने सेवा की !
सेवा तो शबरी की है, सेवा तो राम जी की है, सेवा तो श्रीकृष्ण की है, सेवा तो कबीर जी की है और सेवा तो ऋषि प्रसाद वालों की है, अन्य सेवकोकं की है। यह सोचकर बड़े पद पर बैठ गया कि बड़ी सेवा करेंगे तो यह बेईमानी है। सेवक को किसी पद की जरूरत नहीं है। सारे पद सच्चे सेवक के आगे पीछे घूमते हैं। कोई बड़ा पद लेकर सेवा करना चाहता हो, बिल्कुल झूठी बात है। सेवा जो अधिकार चाहता है वह वासनावान होकर जगत का मोही हो जायेगा। लेकिन सेवा में जो अपना अहं मिटाकर तन से, मन से विचारों से दूसरे की भलाई, दूसरे का मंगल करता है और मान मिले, चाहे अपमान मिले उसकी परवाह नहीं करता, ऐसे हनुमान जी जैसे सेवक की हनुमान जयंती मनायी जाती है। हनुमान जी देखो तो जहाँ छोटा बनना है छोटे और जहाँ बड़ा बनना है तो बड़े बन जाते हैं। सेवक अपने स्वामी का, गुरु का संस्कृति का काम करे तो उसमें लज्जा किस बात की ! सफलता का अहंकार क्यों करे, मान-अपमान का महत्त्व क्या है !
‘ऋषि प्रसाद’ बाँटने वाले को मान-अपमान थोड़े ही प्रभावित करता है ! मान मिला वहाँ ऋषि प्रसाद का सदस्य बनाने गया, मान नहीं मिला तो नहीं गया तो वह सेवक नहीं है, वह तो मान का भोगी है। चाहे मान मिले या अपमान मिले, यश मिले या अपयश मिले, सेवा तो सेवा ही है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 27,29 अंक 223
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