नजरें बदलीं तो नजारे बदले…..

नजरें बदलीं तो नजारे बदले…..


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

सपने से जगाने के लिए भगवान ने सुंदर व्यवस्था की है। अनुकूलता आती है तो आपका उल्लास, उत्साह बढ़ाती है। प्रतिकूलता आती है तो आपका विवेक जगाती है। अनुकूलता आकर आपको उदार बनाती है, परदुःखकातरता का सदगुण जगाती है। प्रतिकूलता आकर आपको विवेक-वैराग्यवान बनाती है।

अनुकूलता में जो आसक्त होता है वह अनुकूलता में फँसता है और प्रतिकूलता में जो उद्विग्न होता है वह प्रतिकूलता में फँसता है। भगवान ने अनुकूलता और प्रतिकूलता ये सभी के जीवन में दे रखी हैं। यह मंगलमय विधान किसी व्यक्ति या जाति के लिए नहीं, सभी के लिए है। पृथ्वी पर एक भी प्राणी नहीं मिलेगा जिसे सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ न आयी हों।

विधान मंगलमय परमात्मा का है। मंगलमय प्यारे ऐसा विधान नहीं करते जिससे किसी को हानि हो। उनका विधान हानि के लिए नहीं, लाभ के लिए ही होता है। सभी के हित के लिए ही होता है परम हितैषी का विधान। ʹगीताʹ में आता हैः

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

ʹदुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।ʹ (गीताः 2.56)

भगवान कहते हैं दुःखों में मन उद्वेगरहित हो। सुख में स्पृहा नहीं, आसक्ति नहीं हो। उद्विग्न मत हो, दुःखद परिस्थिति आपको विवेकी बनाने के लिए, वैराग्यवान बनाने के लिए, संयमी बनाने के लिए आयी है। सुख में तो व्यक्ति आसक्त होकर फँस सकता है लेकिन दुःख में आसक्ति नहीं होती। दुःख आये तो परम सौभाग्य मानकर उसका स्वागत करना चाहिए कि ʹचलो, विवेक जगाने का समय आया है। पाप नष्ट कराने के लिए दुःख आया है। अपने वालों की परीक्षा के लिए भी दुःख आया है। खुशामदखोरों की पोल खोलने के लिए भी दुःख आया है। चापलूसी करके उल्लू बनाने वालों से बचाने के लिए भगवान ने दुःख दे दिया है। वाह ! वाह !! दुःख तो व्यक्ति को सजाग होने के लिए है। दुःख में तो विवेक जगता है, वैराग्य जगता है, सूझबूझ जगती है, सजगता जगती है और सुख में विवेक सोता है, वैराग्य सोता है तो आदमी भोगी हो जाता है।

बड़े आश्चर्य की बात है कि जो फँसाने वाला सुख है उसको पाकर, फँसाने वाली परिस्थिति को पाकर व्यक्ति अपने को भाग्यशाली मानते हैं और फँसान से निकालने वाली परिस्थितियाँ पाकर व्यक्ति अपने को अभागा मानते हैं। अभागा तो वह व्यक्ति है कि जिसके जीवन में प्रतिकूलता नहीं आयी। अभागा तो वह व्यक्ति है कि जिसके जीवन में असुविधा नहीं आयी, सत्संग नहीं आया, सदगुरू का ज्ञान नहीं आया, सजगता नहीं आयी।

प्रतिकूलता आयी तो यह दुर्भाग्य नहीं मानना चाहिए। अनुकूलता के भोगी बने तो फँसने का खतरा है, सावधान !

श्रीकृष्ण कहते हैं कि अनुकूलता में आसक्ति मत करो कि ऐसी परिस्थिति बनी रहे, मान मिलता रहे। आहाहा….. ! यह सब ऐसा बना रहे, और भी बढ़िया-बढ़िया मिलता रहे। अरे, मिल गये तो मिल गये, चले गये तो चले गये, तुम इनसे ऊपर हो। इनको महत्त्व देकर तुम इनकी महिमा बढ़ाते हो। ʹयह मिठाई बहुत बढ़िया है…ʹ – तुम अपनी मिठास डालते हो, अपनी मधुरता डालते हो तभी मधुर लगती है। ʹयह चीज बहुत बढ़िया है…ʹ – तुम अपना बड़प्पन डालते हो तब बढ़िया लगती है। तुम ऐसे चैतन्य वपु (चिन्मय शरीर) हो कि जिसके प्रति प्रीति से देखते हो वह प्रेमास्पद हो जाता है। जिसके प्रति रसमय दृष्टि से देखते हो वह रसमय हो जाता है, जिसके प्रति अपनत्व की नजर से देखते हो वह अपना हो जाता है। तुम ऐसे सजग, सज्जन चैतन्य हो। खामखाह इन वस्तुओं को महत्त्व देकर दीनता-हीनता की जंजीरों में अपने को बाँध रहे हो।

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

दुःख में मन को उद्विग्न मत होने दो और सुख में लम्पुटता को छोड़ दो तो सुख भी साधन हो जायेगा, दुःख भी साधन हो जायेगा और आप साध्य को पा लेंगे।

सुख सपना दुःख बुलबुला, दोनों हैं मेहमान।

दोनों बीतन दीजिये, आत्मा को पहचान।।

अपने आपको पहचानो। सुख  सपना व दुःख बुलबुला है, दोनों मेहमान हैं। जो सुखाकार दुःखाकार वृत्ति है वह चित्त में पैदा होती है। सुखद-दुःखद परिस्थितियों के पास समय नहीं कि आपको सुखी-दुःखी करने के लिए ठहरें। सभी परिस्थितियाँ आ-आकर चली जाती हैं लेकिन हम मूढ़ता से परिस्थितियों को अपने में आरोपित कर लेते हैं। प्रारब्ध से, ईश्वर की व्यवस्था से, ऋतु-मौसम के अनुसार सुख-दुःख, ठंडी-गर्मी आती है लेकिन ʹमैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँʹ – यह मूढ़ता करें अथवा तो सजाग हो जायें कि ʹमैं इनको देखने वाला हूँ, मैं साक्षी हूँʹ यह अपने हाथ की बात है।

हम हैं अपने-आप, हर परिस्थिति के बाप !

स्वभाव में जग गे तो अनुकूलता भी साधन, प्रतिकूलता भी साधन ! अनुकूलता आये तो चिपके नहीं रहना और प्रतिकूलता आये तो भागना नहीं। प्रतिकूलता आयेगी और जायेगी, अनुकूलता आयेगी और जायेगी पर मेरा अंतरात्मा राम रहेगा, रहेगा और रहेगा। बाल्यकाल आया और चला गया, बाल्यकाल के  बहुत सपने आये और गये, बहुत सुख-दुःख आये और गये, जवानी के बहुत सपने और पुरानी कल्पनाएँ आयीं और चली गयीं पर उनको जानने वाला गया नहीं। वह मेरा प्यारा मेरे साथ है। वह नित्य चैतन्य वपु है, ज्ञानस्वरूप है, चैतन्यस्वरूप है। वह सुख और दुःख को हमें देकर अपनी तरफ मोड़ता है। तो भक्त की नजर दु-ख पर नहीं, दुःख-सुख की व्यवस्था कर-करके दुःख-सुख से पार करने वाले प्रभु पर होती है। इसीलिए भक्त दुःख में भी मस्त रहता है, सुख में भी मस्त रहता है। हानि में भी मस्त रहता है, लाभ में भी मस्त रहता है। यश में भी मस्त रहता है, अपयश में भी मस्त रहता है क्योंकि उसकी नजर परम मस्तस्वरूप परमात्मा पर है।

नजरें बदलीं तो नजारे बदले।

किश्ती ने बदला रुख तो किनारे बदले।।

ऊँची नजर सत्संग से मिलती है, फिर भक्त को लगता है कि ʹवाह प्रभु ! हमें अपनी तरफ आकृष्ट करने के लिए आपकी यह सारी व्यवस्था है।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 232

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