शरणानंद जी महाराज भिक्षा के लिए किसी द्वार पर गये तो उस घर के लोगों को उन्होंने बड़ा खुश देखा।
महाराज ने पूछाः “अरे ! किसी बात की खुशी है बेटे-बेटियाँ ?”
“महाराज ! क्या बतायें, आज तो बहुत मजा आ रहा है। बहुत खुशी हो रही है।”
शरणानंद जीः “अरे भाई ! कुछ तो बताओ, आखिर बात क्या है ?”
“भैया बी.ए. में पास हो गया है, समाचार आया है, इसलिए खुश हैं।”
सारे के सारे लोग खुश थे। लेकिन संत जब मिलते हैं और बात करते हैं तो आपकी खुशी स्थायी हो और खुशी के मूल में यात्रा हो, उस नजरिये से बात करते हैं। आप मौत के सिर पर पैर रखकर जीवनदाता को मिलो, उस नजरिये से आपके बीच आते हैं। सच्चे संतों को आपसे कुछ लेना नहीं है, आपको देना ही देना है।
शरणानंद जीः “अभी जो आपको इतनी खुशी हो रही है, कल तक ऐसी की ऐसी खुशी को आप टिका सकते हो क्या ? अब वह नापास तो होगा नहीं ! पास है तो पास ही रहेगा। कल भी पास रहेगा, परसों भी पास रहेगा। लेकिन उसके पास होने की खुशी अभी जो हो रही है वह कल भी ऐसी टिकेगी क्या ? सबकी इच्छा थी वह पास हो जाय और वह पास हो गया, समाचार आ गया। तुम्हारी इच्छा पूरी हो गयी। वह इच्छा निकल गयी उस वक्त की खुशी है। खुशी तो आत्मदेव की है !” सब चुप हो गये।
“तुम्हारी इच्छा पूरी हुई उसकी खुशी है कि कोई और खुशी है ? तुम्हारी एक इच्छा निवृत्त हुई, उसका सुख है तुम्हें। भाई की सफलता की खुशी है कि आपकी इच्छा निवृत्त हुई उसकी खुशी है ?
अच्छा, कौन सी श्रेणी से पास हुआ है ? प्रथम श्रेणी से पास हुआ है कि दूसरी, तीसरी श्रेणी से ? एम. ए. हो सकेगा ? नौकरी पा सकेगा ? अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा ?”
अब वे लोग चुप !
आपकी कोई मनचाही बात हो जाती है और आप जितने खुश होते हैं, वैसी खुशी दूसरे दिन तक रहती है क्या ? नहीं। आपकी मनचाही बात हुई तो इच्छा हट गयी। आप इच्छा रहित पलों में आ गये। तुम्हारी यह इच्छारहित दशा ही अंदर का सुख लाती है। जिसकी एक इच्छा हट जाती है, वह इतना सुखी होता ह तो जिसकी सारी इच्छाएँ हट गयीं, उसके सुख का क्या तुम वर्णन कर सकते हो ? एक इच्छा निवृत्त होने से लोग इतने खुश होते हैं तो जिनकी अपने सुख की सारी इच्छाएँ निवृत्त हो गयीं, उनके पास कितना सुख होगा ! उन महापुरुष ने सबको सात्त्विक बुद्धि में प्रवेश करने के लिए मजबूर कर दिया।
जिसकी सुखी होने की कामनाएँ मिट गयीं, वह कितना सुखी है ! जिसकी बाह्य सफलताओं की कामनाएँ मिट गयीं, वह कितना सफल है ! बाह्य आकर्षण के बिना ही वह स्वयं आकर्षण का केन्द्र बन गया। कितना सफल है ! इन्द्रदेव ऐसे महापुरुष का पूजन करके भाग्य बना लेते हैं। देवता ऐसे ब्रह्मज्ञानी का दीदार करके अपना पुण्य बढ़ा लेते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 5, अंक 224
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