मनःस्थिति का परिमार्जन

मनःस्थिति का परिमार्जन


पूज्य बापू जी की विवेकसम्पन्न अमृतवाणी

स्वामी श्री अखण्डानंद जी महाराज का एक सत्संगी था। उसने बताया कि मुझे पुस्तक पढ़ने का बड़ा शौक था। मैं डॉक्टर बनने के लिए पुस्तकें पढ़ता था। एक दिन मैं ‘रोग के लक्षण एवं उसका इलाज’ पढ़ रहा था। पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा कि इसमे रोग के जो भी लक्षण बताये गये हैं, वे सब मुझमें हैं।

कुछ आदमी कार्यालय जाते हैं, फिर बिना किसी मर्ज के दवाखाने जाते हैं। पूछो कि ‘दवाखाने क्यों जा रहे हो?’ तो बोलेंगेः ‘आज वैसे तो हम ठीक थे लेकिन टी.वी. में देखा और समाचार पत्र में भी पढ़ा कि हिमालय में बर्फ पड़ी है और आज सर्दी ज्यादा हो गयी है तो मुझे भी अब सर्दी लग गयी है।’

जब तक टी.वी. नहीं देखा और समाचार नहीं पढ़ा था, तब तक सर्दी नहीं थी। यह मानसिक चिंतन का प्रभाव है।

ऐसे ही रोग के लक्षण ‘ऐसा होता है, ऐसा होता है…’ पढ़ते-पढ़ते उस आदमी को हुआ कि मेरे को तो ऐसा ही होता है…. ‘ पेट भारी-भारी लगना, कभी डर लगना कि क्या होगा – इस प्रका के जो भी लक्षण होते हैं। फिर वह डॉक्टर के पास गया, उन्हें बताया कि “मैं डॉक्टरी पढ़ने वाला विद्यार्थी हूँ। मैंने कई पुस्तकें पढ़ी हैं। इस प्रकार के लक्षण सारे के सारे मुझमें हैं। मेरे लिये क्या इलाज है ?”

डॉक्टर हँसने लगे। वह घबराया कि ‘मेरे में रोग के लक्षण दिखाई दे रहे हैं, मैं उपाय पूछता हूँ और डॉक्टर हँस रहे हैं ! मेरी क्या गलती है ?’ डॉक्टर और हँसे। उसने पूछाः “महाशय ! आप मेरे पर क्यों हँस रहे हैं ?”

उन्होंने कहाः “पेट भारी-भारी, कमर में दर्द, कभी डकार आती है, फलाना-ढिमका… ये जो भी लक्षण तुम बता रहे हो, ये तो गर्भिणी स्त्री के हैं और तुम हो पुरुष ! तुम्हें तो प्रसूति होने वाली नहीं है। लक्षण पढ़ते-पढ़ते तुम्हारी मानसिकता ऐसी हुई कि ये लक्षण मुझमें हैं तो तुम्हें ऐसा महसूस हो रहा है। वास्तव में ये गर्भिणी स्त्री के लक्षण हैं।”

ऐसे ही कई लोग मान लेते हैं कि ‘मैं दुःखी हूँ, मेरा कोई नहीं है।’ अरे, विश्व का नियंता हमारे साथ है। मौत भी हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकती। हम आत्मा हैं। भगवान भी हमारे आत्मा को नहीं मार सकते, फिर भी हम घबरा रहे हैं ! उस विद्यार्थी की तरह सुनते-सुनते लक्षण आ रहे हैं कि ‘यह होगा, वह होगा….।’

किस बच्चे का विकास कैसे होगा, यह माता जानती है। उसी तरह किस जीव का विकास कैसे होगा, यह परमात्मा जानते हैं। फिर काहे घबराना ! ॐ आनंद…. ॐ उत्साह… ॐ हिम्मत…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 14, अंक 224

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