पुराने समय की बात है। दिल्ली में एक बादशाह राज्य करता था। एक रात को वह वेश बदलकर घूमने निकला तो क्या देखा कि खजाने में रोशनी हो रही है। उसने मन में सोचा, ‘इस समय आधी रात को खजाने में कौन है और क्या कर रहा है ?’ जाकर देखा तो खजानची बैठकर हिसाब कर रहा था।
बादशाह ने कहाः “अरे भाई ! इतनी रात तक क्यों जग रहे हो ?”
“महाराज ! हिसाब में कुछ गड़बड़ हुई है।”
“घाटा हुआ है कि मुनाफा हुआ है ?”
“महाराज ! घाटा हुआ होता तो उतनी चिंता की बात नहीं थी। घाटा नहीं फायदा हुआ है।
कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोई।
आप ठगे सुख उपजे, और ठगे दुःख होई।।
खजाने में हिसाब से जितना धन होना चाहिए, उससे ज्यादा जमा हुआ है।”
“अब सो जाओ, कल हिसाब कर लेना।”
“नहीं महाराज ! पता नहीं किस गरीब के पसीने की कमाई हमारे खजाने में आकर मिल गयी है। अब हमारे लिए यह नाहक की कमाई है। संतों के सत्संग में सुना है कि ‘नाहक की कमाई आते समय तो दिखती है पर कुछ वर्षों के बाद मूलसहित चली जाती है। जाते समय दिखती भी नहीं है।’ यह नाहक की सम्पदा रात भर भी क्यों रहे हमारे खजाने में ! क्या भरोसा कल सुबह तक मेरी मौत हो गयी तो ! मेरा तो कर्मबंधन बन जायेगा, जिसे चुकाने को फिर से जन्म लेकर उस गरीब के घर आना पड़ेगा। इसलिए अभी निकाल देता हूँ। कल उसको वापस कर दी जायेगी।”
“तुम्हारे जैसा सत्संगी खजानची जब तक मेरे राज्य में है, तब तक मेरे राज्य को कोई खतरा नहीं है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 7 अंक 225
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