आत्मसुख में बाधक व साधक बातें

आत्मसुख में बाधक व साधक बातें


(पूज्य बापू जी की प्रेरणादायी वाणी)

आत्मसुख में पाँच चीजें बाधक और पाँच चीजें साधक हैं।

आत्मसुख में बाधक हैः

बहुत प्रकार के ग्रंथों को पढ़ना, बहुत दृश्यों को देखना, पिक्चरें देखना।

बहिर्मुख लोगों की बातों में आना और उनकी लिखी हुई पुस्तकें पढ़ना, बहुत सारे समाचार सुनना, अखबार-उपन्यास पढ़ना।

बुद्धि को बहुत चीजों से उलझाने से आप ईश्वर की शांति से, ईश्वर के माधुर्य से, चिन्मय सुख से फिसल सकते हैं इसलिए अपने को बहुत चीजों में मत फँसाओ।

बहिर्मुख लोगों की संगति करना, उनसे हाथ मिलाना,  उनके श्वासोच्छवासा में ज्यादा समय रहना-साधक के लिए उचित नहीं है।

किसी भी व्यक्ति-वस्तु परिस्थिति में आसक्ति करना।

वासना के आवेग में आकर आप सुखी होना चाहते हैं। राग से, द्वेष से, मोह से उत्पन्न वासना से आक्रान्त होते हैं तो आप परमात्म-सुख से चिन्मय सुख की योग्यता से गिर जाते हैं। अगर आप इनसे आक्रान्त नहीं होते तो आप चिन्मय सुख के अधिकारी हो जाते हैं।

अधिकारी न होते हुए भी उपदेशक या वक्ता बनना।

आत्मसुख में सहायक हैः

भगवच्चरित्र का श्रवण। भगवान के प्यारे संत और भगवत्स्वरूप ब्रह्मज्ञानियों के जीवन-चरित्र सुनना या पढ़ना।

भगवान की स्तुति।

भजन, सुमिरन, ध्यान।

भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुषों में श्रद्धा बढ़े ऐसी ही चर्चा करना-सुनना, ईश्वर की कथा सुनना।

सदैव ईश्वर की स्मृति करते-करते आनंद में रहने की आदत।

तो आज से साधना में बाधक बातों का त्याग करके साधना में सहायक बातों का अवलम्बन लो और अपने लक्ष्य जीवन्मुक्ति को पा लो। आत्मसुख में बाधक कमियों को निकालने के लिए भगवान से प्रार्थना करना कि ʹप्रभु ! मैं तुम्हारा हूँ, तुम मेरे हो। मुझे वासना, विकार से बचाकर हे निर्विकार नारायण ! अपने राम स्वभाव में जगाना-

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।

ताहि भजनु तजि भाव न आना।।

(श्रीरामचरित. सुं.कां. 33.2)

हे अंतर्यामी राम ! आपके स्वभाव को जान लें तो हम आपसे एकाकार हो जायेंगे। मैं कई जन्मों से वासना-विकारों का आदी हूँ इसलिए फिसल रहा हूँ, तुम मुझे बचाते रहना।

फिसलते-फिसलते कई बार फिसलने के बाद भी आप उठ खड़ें होंगे। जैसे बचपन में कई बार गिरने के बाद भी आप अभी दौड़ने से काबिल हो गये। बचपन में एक बार, दो बार, पाँच बार गिरे फिर भी आप चलने का अभ्यास करते रहे। नहीं करते तो अभी विकलांग होकर पड़े रहते लेकिन गिरने को आपने गिरा-अगिरा समझकर चलने का प्रयास चालू रखा तो अभी चल भी सकते हो, दौड़ भी सकते हो, कूद भी सकते हो। चलते समय जब आप गिरे थे तब यदि डरकर बैठ जाते तो अभी आपकी स्थिति कैसी नाजुक होती !

ऐसे ही ईश्वर के रास्ते भी आप कई बार फिसलें तो भी चिंता नहीं करना। ʹहम फिसल गयेʹ, यह भ्रम मत करना। यह सोचना कि ʹपुरानी आदत के कारण मन फिसल गया है, हम तो भगवान के हैं।ʹ तो आप फिसलाहट से जल्दी बच जाओगे।

कहीं बढ़िया चीज है तो ʹवहाँ बढ़िया मजा आयेगाʹ – इस भाव से जाओगे तो आप फिसलते चले जाओगे। बढ़िया-में-बढ़िया सुख का सागर मेरा प्रभु है। बाहर कितना भी रहोगे लेकिन अंत में रात को थककर सोने के लिए तो अपने अंतरात्मा में आओगे। इसलिए किसी दृश्य को, किसी सुंदरे-सुंदरी को किसी चरपरे-चटपटे भोग को महत्त्व नहीं दोगे तो आप चिन्मय सुख की, आत्मा-परमात्मा के सुख की लगन होने से उसमें अच्छी तरह से स्थिति पा लोगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 8,10 अंक 230

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