30 जून 2012 से 25 नवम्बर 2012 तक
केवल पुण्यप्रद ही नहीं, परमावश्यक है
चतुर्मास में साधना।
आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान विष्णु योगनिद्रा द्वारा विश्रान्तियोग का आश्रय लेते हुए आत्मा में समाधिस्थ रहते हैं। इस काल को ʹचतुर्मासʹ कहते हैं।
संस्कृत में हरि शब्द सूर्य, चन्द्र, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। वर्षाकाल की उमस हरि (वायु) में शयनार्थ चले जाने के कारण उनके अभाव में उत्पन्न होती है। यह अन्य किसी भी ऋतु में अनुभव नहीं की जा सकती। सर्वव्यापी हरि हमारे शरीर में भी अऩेक रूपों में विद्यमान रहते हैं। शरीरस्थ गुणों में सत्त्वगुण हरि का प्रतीक है। वात-पित्त-कफ में पित्त को हरि का प्रतिनिधि माना गया है। चतुर्मास में ऋतु परिवर्तन के कारण पित्तरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति सो जाती है। इस ऋतु में सत्त्वगुणरूपी हरि का शयन (मंदता) तो प्रत्यक्ष ही है, जिससे रजोगुण व तमोगुण की वृद्धि होने से इस ऋतु में प्राणियों में भोग-विलास प्रवृत्ति, निद्रा, आलस्य अत्यधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं। हरि के शरीरस्थ प्रतिनिधियों के सो जाने के कारण (मंद पड़ने से) अऩेक प्रकार की शारीरिक व मानसिक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिनके समाधान के लिए आयुर्वेद में इस ऋतु हेतु विशेष प्रकार के आहार-विहार की व्यवस्था की गयी है।
सत्त्वगुण की मंदता से उत्पन्न होने वाली दुष्पृवृत्तियों के शमन हेतु चतुर्मास में विविध प्रकार के व्रत, अऩुष्ठान, संत-दर्शन, सत्संग, संत-सेवा यज्ञादि का आयोजन होता है, जिससे सत्त्व-विरहित मन भी कुमार्गगामी न बन सके। इन चार महीनों में विवाह, गृह-प्रवेश, प्राण-प्रतिष्ठा एवं शुभ कार्य बंद रहते हैं।
चतुर्मास में विशेष महत्त्वपूर्णः विश्रान्तियोग
ʹस्कन्द-पुराणʹ के अनुसार चतुर्मास में दो प्रकार का शौच ग्रहण करना चाहिए। जल से नहाना-धोना बाह्य शौच है तथा श्रद्धा से अंतःकरण शुद्ध करना आंतरिक शौच है। चतुर्मास में इऩ्द्रियों की चंचलता, काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य (ईर्ष्या) विशेष रूप से त्याग देने योग्य हैं। इनका त्याग सब तपस्याओं का मूल है, जिसे ʹमहातपʹ कहा गया है। ज्ञानीजन आंतरिक शौच के द्वारा अपने अंतःकरण को मलरहित करके उसी आत्मा-परमात्मा में विश्रांति पाते हैं जिसमें श्रीहरि चार महीने समाधिस्थ रहते हैं।
पूज्य बापू जी कहते हैं- “भगवान नारायण चतुर्मास में समाधि में है तो शादी-विवाह और सकाम कर्म वर्जित माने जाते हैं। सेवा, सुमिरन, ध्यान आपको विशेष लाभ देगा। भगवान नारायण तो ध्यानमग्न रहते हैं और नारायण-तत्त्व में जगे हुए महापुरुष भी चतुर्मास में विशेष विश्रांतियोग में रहते हैं, उसका फायदा उठाना। आपाधापी के कर्मों से थोड़ा अपने को बचा लेना।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 27
ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ