परम उन्नतिकारक श्रीकृष्ण-उद्धव प्रश्नोत्तरी

परम उन्नतिकारक श्रीकृष्ण-उद्धव प्रश्नोत्तरी


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

उद्धवजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछाः “प्रभु ! दक्षिणा किसको बोलते हैं ?”

श्रीकृष्णः “गुरुजनों के उपदेश में जो दक्ष हो जाता है, दृढ़ हो जाता है, अपने मन के नागपाश में जो नहीं आता, गुरु के समक्ष जिसके जाते ही गुरु के मन में हो कि अब इसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश देना चाहिए तो समझ लो कि उसने दक्षिणा दे दी। उसका व्यवहार, आचरण ऐसा हो कि गुरु को संतोष हो कि धोखा नहीं देगा। यह ब्रह्मविद्या का दुरुपयोग नहीं करेगा, पद का दुरुपयोग नहीं करेगा, पद के अनुरूप विचार करेगा। ऐसी योग्यता से सुसज्ज होना ही दक्षिणा है। देखते ही गुरु का हृदय उछलने लग जाय कि ʹये मेरे साधक हैं, मेरे शिष्य हैं इनको ब्रह्मज्ञान का उपदेश दें। इनको जल्दी भगवद्-अमृत मिले, भगवदज्ञान मिले।ʹ ऐसा आचरण ही दक्षिणा है।”

“श्रीकृष्ण ! लज्जा किसको बोलते हैं ? लज्जा कब आनी चाहिए ?”

“बुरा कर्म करने में शर्म आये उसको बोलते हैं लज्जा। बुरे काम में, बुरी सोच में, बुरे भोजन में, बुरा मजा लेने में लज्जा आये तो समझ लेना उसकी लज्जा सार्थक हो गयी। ऐसे ही कुछ पहन लिया, घूँघट निकाल दिया तो क्या बड़ी बात हो गयी ! बुरा काम, बुरा बोलना, बुरा सोचना, बुरा खाना, ये जब भी हों तो सावधान होकर दृढ़ संकल्प लें कि ʹमैं बुराई की खाई में नहीं गिरूँगा।ʹ उनसे अच्छाई की तरफ जायें।”

“प्रभु ! श्रीमान् किसको बोलते हैं ?”

“रूपये पैसे तो यक्षों के पास भी बहुत होते हैं। रावण के पास भी धन बहुत था। श्रीमान वह है जिसके जीवन में किसी चीज की जरूरत नहीं है, भगवत्कथा है और भगवान में ही संतुष्ट है वही उत्तम योगी भी है।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।

जो यत्न करता है और ʹमैं आत्मा हूँʹ – ऐसा दृढ़ निश्चय है जिसका, वह संतुष्ट रहेगा। अंतरात्मा में तृप्त, संतुष्ट व्यक्ति ही वास्तव में श्रीमान है, धनवान।”

उद्धवजीः “दरिद्र कौन है?”

भगवानः “जिसको संतोष नहीं है। “गहने चाहिए, कपड़े चाहिए, यह चाहिए, वह चाहिए…. मेरा चला न जायʹ-ऐसा जो सोचता है वह कंगाल है।”

“प्रभु ! सुख क्या है ?”

“उद्धव ! सामान्य आदमी समझता है कि मकान हो, दुकान हो, चीज वस्तुएँ हों, विषय भोग हों, सब कहने में चलें तो यह सुख है। नहीं यह सुख नहीं है। सुख सुविधाएँ प्राप्त हों, चाहे सब चली जायें फिर भी ज्यों का त्यों समता में रहे वह वास्तविक सुख है। सुखद अवस्था आये चाहे चली जाय फिर भी अंतःकरण में हलचल न हो, अपना स्वरूप ज्यों का त्यों है ऐसा ज्ञान बना रहे वह वास्तविक सुख है, वास्तविक ज्ञान है, वास्तिक रस है, वास्तविक भगवत्प्राप्ति है।

सचमुच में सुख क्या है कि सुखद, अनुकूल वस्तु मिले तो भी उसकी आसक्ति-वासना न हो, प्रतिकूल परिस्थिति आये तब भी दुःख न हो वह समता ही वास्तव में सुख है।” बहुत ऊँची बात कह दी भगवान ने !

स्रोतः ऋषि प्रसाद जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 10

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *