‘बुद्धि’ अद्वैत में सोती है

‘बुद्धि’ अद्वैत में सोती है


आदमी दुःखी क्यों होता हैं और ईश्वर प्राप्ति में तकलीफ क्यों होती हैं? …कि ऐसा हो-ऐसा न हो, ऐसा मिले-ऐसा न मिले…।

पक्का कर लो, अपनी तरफ से अड़चन नहीं बनेंगे और आप-चाही सब होती हैं क्या? आज तक तुमने कितना-कितना चाहा? तो तुम्हारा चाहा सब हो गया क्या? जो चाहते हो वह सब होता नहीं, जितना होता है वह सब भाता नहीं और जो भाता है वह टिकता नहीं, फिर काहे को पकड़ करो।  होता हैं तो होता हैं, ठीक है नहीं तो वाह-वाह,  वाह-वाह..। ऐसा हो-ऐसा न हो, ऐसा न हो-ऐसा हो, ऐसा करके अपनी वासनाओं का पुतला मत बनो। आप रहो अपने ईश्वर स्वभाव में, अपने शांत-सम स्वभाव में। प्रयत्न करो, फिर जो हो- ‘सम’, इसको बोलते है ‘समत्वं योग उच्यते’। ये बड़ी भारी तपस्या है।

सब-कुछ त्यागकर मैं भिक्षा माँगकर रहूँगा अथवा सब-कुछ पाकर मैं बड़ा होकर रहूँगा…नहीं,  अभी जहाँ हैं, “मैं कौन हूँ?” …बस और “कौन पुरुष स्फुरित करता हैं?”, मेरे को बुरे विचार आते है, नहीं आये… तो लड़ो मत उनसे। बुरे विचार आते हैं तो वैसा करो मत, उससे उपराम, बस ईश्वर में… लेकिन ईश्वर में मन लगता नहीं… तो नहीं लगता तो कोई बात नहीं, ना लगे। ईश्वर में मन ना लगो तो ना लगो, जहाँ-तहॉं, जहाँ लगता हैं उसकी गहराई में ईश्वर हैं, चलो जाओ… गाय में लगा, कुत्ते में लगा, घोड़े में लगा, गधे में लगा… किसमें लगा? जहाज में लगा… ड्यूटी में लगा? …तो ड्यूटी में मन इधर भागा, उधर भागा.. तो ये भागने को जानता कौन हैं और किसकी सत्ता से भागते हो? ऐसा पूछो, अपने आप लग जायेगा, इसको बोलते हैं अविकम्‍प योग। एक तो मन लग गया… ‘समाधि’… वो हो गया समाधियोग लेकिन उसमें नहीं लगे तो इससे भी आसान तरीका हैं, चलते-फिरते ज्ञान की बैटरी डाल दो मन की गाड़ी में… अविकम्‍प योग हो गया। मन लगे तो लगे, न लगे तो फिर ज्ञान में, विचार में शांत हो जायेगा, मौन हो जायेगा। श्वाँस अंदर गया.. ॐ,  बाहर आये तो गिनती, अंदर गया तो शांति… बाहर आये तो गिनती।

‘साधना’ क्यों करनी पड़ती हैं? कि ‘असाधन’ हो गया इसीलिये साधन करना पड़ता है। ईश्वर भी है, हम भी है फिर पाने के लिये मेहनत क्यों? ईश्वर मिलना चाहते हैं और हम भी मिलना चाहते हैं फिर भी देरी क्यों? …कि वो गलत तरीके से जो सच्चा मान लिया हैं उसको निकालने के लिए गड़बड़ करनी पड़ती हैं। आप लोग पान-मसाला खाना छोड़ दो, तो आपके लिए क्या देरी है? पान-मसाला, जर्दा छोड़ना क्या देरी है?, खाते ही नहीं है लेकिन जो जर्दा खाने की आदत में फँसे है उनके लिये जर्दा छोड़ने के लिये मेहनत हैं। तो, साधन करते हैं लेकिन असाधन को पकड़ के रखते हैं। भजन करते है लेकिन अभजन की तरफ खींचने वाली चीजों को महत्व दे देते हैं, कहीं ये छूट न जाए, ऐसा न हो जाए, वैसा न हो जाए…। …वैसा न हो जाए?…काहे को फिकर करता हैं? माँ के गर्भ में था उस समय कौन था तेरा रक्षक? कौन था पोषक? माँ के शरीर का पोषक कौन था? किसने रक्तवाहिनियों में रक्त बहा के नाभि के द्वारा तेरा पोषण किया है? वो प्रभु चले गये है क्या? सो गये हैं क्या? अथवा उसकी सत्ता से उनकी जगह थोड़ी खाली हो गई हैं क्या? कोई दूसरा आ गया है क्या? दो भगवान हो गए है क्या सृष्टि में?  एकमेव अद्वितीय…

तुम्हारी बुद्धि रात  में किसमें सोती हैं? पता है? अद्वैत में सोती हैं… । अद्वैत में बुद्धि सोती हैं तो पुष्ट होती हैं और फिर द्वैत में आती हैं तो बिखरती हैं, फिर थक-थका के अद्वैत में जाती हैं। वहाँ कोई नही! तत्र पिता अपिता भवति, माता अमाता भवति, मित्र अमित्र भवति… गहरी नींद में मित्र, मित्र नहीं। पिता, पिता नहीं। माता, माता नहीं… अद्वैत एक सत्ता।

फूलों से सजी हुई सज्जा और इत्र छिटका हुआ कमरा और ललनाओं की हास्य-विलास और सेवा-चाकरी लेते-लेते राजा सो गया है। सोने से पहले खिड़की से निहारा कि एक युवक अपना कँबल बिछाकर लेट रहा हैं। क्या… उस युवक की जिंदगी हैं, भाग्य बेचारे का! मैं भी युवराज हूँ,  राज्याभिषेक हुआ और इतना राजमहल में ऐश करते-करते सो रहा हूँ और वो बेचारा युवक एक कँबल बिछाकर… साधु पड़ा है मंदिर के प्रांगण में…।

सुबह हुई, वह राजा सैर करने गया। वह महात्मा भी नदी किनारे सैर करते हुए… नहाकर, आगे को जाना था।

व्यंग्‍य में राजा ने कहा, युवराज ने –”क्यों महाराज! महल के सामने वाले मंदिर के प्रांगण में सोये थे रात को, वो ही हो न महाराज?” 
बोले-“हाँ”
“महाराज रात कैसी बीती?”

महाराज की चमकती आँखों ने उस युवराज के व्यंग को भाँप लिया और चमकते, अपने प्रातः स्फुरित होनेवाले अनुभव को स्मरण करते हुए राजाधिराज, महाराजाओं के बाप का बाप, नंगे पैर, नंगे सिर, कंधे पर कँबल लिये हुए महापुरुष ने कहा- “राजा! रात कैसी बीती! कुछ तो तुम्हारे जैसी और कुछ तुम्हारे से बहुत-बहुत बढ़िया।”

बोले- “कुछ रात मेंरे जैसी और कुछ मेंरे से बहुत-बहुत बढ़िया… ये कैसे?”

बोले- “तुम घोड़े से नीचे उतरो तब ना! यह रहस्य समझना हैं तो थोड़ा नम्रता का सद्गुण तो युवराज आप में होगा ही!”

मजबूर कर दिया उस मायावी सुखों में उलझे हुए युवराज को, सुलझे हुए युवक ने, अकिंचन युवराज ने…। सब-कुछ वैभव इकट्ठा कर के सुखी होने में भटकने वाले राजाधिराज को, आत्मा में संतुष्ट होने वाले महाराज ने मजबूर कर दिया नीचे उतरने को।

तले पर बैठ गये महाराज।

“राजा, कैसी बीती रात!, कुछ तो तुम्हारे जैसी, कुछ तुम्हारे से उत्तम…।  इसका उत्तर सुनो! गहरी नींद में आपको पता था कि मैं राजमहल में हूँ? फूलों की शैय्या पर हूँ?…नहीं। वहाँ शैय्या, शैय्या नहीं रहती और मुझे वो भी पता नहीं था कि कँबल पर हूँ और आपको वो भी पता नहीं था कि कोमल गद्दे पर हूँ। गहरी नींद में सब उसी परमेश्वर की गोद में चले जाते हैं। अद्वैत में बुद्धि सोती हैं। गहरी नींद में कोई भेद-भाव नहीं रहता हैं। सजावट तो तुम्हारे नकली शरीर और नकली अहं को खुश करती हैं, असलियत में कोई फर्क नहीं हैं। एक सड़ी-गली झोंपड़ी में गहरी नींद में पड़ा हुआ बुड्ढ़ा और एक राजमहल में लेटा हुआ युवराज, गहरी नींद में दोनों समान पुष्ट होते हैं। …तो तुम्हारे को जितनी देर गहरी नींद आई… और मेरे को आई… तो हम दोनों एक थे, लेकिन तुम जब करवट लेते थे या तुम जब जगे तो तुम्हारा सुख का आश्रय था ललनाएँ, फूल, सुगंध..।  नाक की नाली के द्वारा तुम सुख खोज रहे थे अथवा स्पर्श के द्वारा तुम सुख खोज कर भिखमंगे-से हो रहे थे। बुरा मत मानना… और मैं
“ॐ सच्‍च‍िदानंद, ॐ चैतन्यदेव, ॐ आत्मदेव…” …तो मैं तो बीच-बीच में ईश्वर के चिंतन में आत्म-रस पान करता था और तुम विषय-विकारों की नालियों में उलझ रहे थे इसलिए कुछ तो मेरी रात तुमसे बढ़िया गई और कुछ तुम्हारे बराबरी की गई।

सज्जनता का अंश रहा होगा उस युवराज में। बोले- “महाराज! आपने तो मेरी आँखें खोल दी। मुझ अभागे को ये दुर्भाग्यपूर्ण विलासिता नरकों में ले जाये, वह मिली है और आप सौभाग्यशाली हैं कि आपको ऐसी समझ मिली हैं। महाराज ये समझ कहाँ से लाये?”

बोले- “बिनु सत्संग विवेक न होई। ये समझ सत्संग से मिली हैं। तुम इतना इकट्ठा करते हो फिर भी इतना निर्भीक सुख नहीं हैं, शाश्वत सुख नहीं हैं और मेरे पास कुछ भी नहीं हैं फिर भी राजन…।  

उस महापुरुष के मधुमय नेत्रों से खबर मिल रही थी कि पाया हुआ प्रभु को…। प्रभुमय निगाहों से विलासी राजा के जीवन को भी करवट दिला देता हैं। एक महापुरुष हजारों कंगाल दिलों को अपनी कृपा-दृष्टि से निहाल-खुशहाल कर देता हैं जबकि दस राजा मिलकर भी दस आदमी को भी निहाल-खुशहाल और परम-पद के पथिक नही बना सकते। काहे की इतनी आपा-धापी कर-करके परेशान हो रहे हैं? जो पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा वो चीजों को, उस स्थिति को पा-पाकर, खो-खोकर मरे जा रहे हैं। पतंगा भागता है मजा लेने के लिये लाईट के आगे और अंत में सजा मिलती हैं, ऐसे ही सब विषय-विकारों में मजा लेने को भागते हैं, अंत में थककर, निराश होकर खप जाते हैं। इसी को बोलते हैं माया, मा… या… । ‘मा’ माना जो नहीं, ‘या’ माना जो दिखे… इसको बोलते हैं धोखा।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

जो मुझ परमेश्वर को, चैतन्य को, सच्चिदानंद को प्रपन्न होता हैं, वह इस मेरी माया को तर जाता हैं। नजरिया कहाँ हैं? नश्वर पर है कि नश्वर की गहराई में छुपे हुए शाश्वत पर हैं? शत्रु पर है कि शत्रु की गहराई में छुपे हुए हितैषी पर हैं? नेत्र… कि नाक पर नजर है…  कि ललना के गाल पर नजर है कि ललुआ के गाल के ऊपर नजर हैं…  कि ललुआ और ललना के अंदर रक्तवाहिनियों में जो सत्ताधीश हैं और अंतःकरण में हैं और वही तुम्हारे अंतःकरण में सुबह स्फुरित करता हैं उसकी नजरिया हैं? बहुत कीमती समय हैं! व्यर्थ नहीं गँवाओ!

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