जीने की कला

जीने की कला


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रसाद से)

(अशांति क्यों नहीं जाती ?)

आज भौतिक साधन बहुत हैं पर घर-घर में अशांति है। आवागमन के लिए रेलगाड़ियाँ बढ़ी हैं, हवाई जहाज बढ़े हैं, बातचीत के लिए तार, टेलिफोन और वायरलेस बढ़े हैं, मनोरंजन के लिए रेडियो और सिनेमा साधन बढ़े हैं पर मनुष्य के मन की अशांति नहीं गयी है। वह बढ़ती ही गयी है क्योंकि हमने योग, उपासना और ज्ञान का सहारा लेना छोड़ दिया है। पहले हमारे यहाँ लोग दिन में तीन बार संध्या करते थे तो मन शुद्ध, सात्त्विक और शांत रहता था। एक दूसरे के  प्रति द्वेषभाव कम रहता था, जिससे झगड़े कम होते थे और शांति रहती थी। अभी यदि हम तीन बार संध्या नहीं कर सकते तो दो बार करें। दो बार भी नहीं कर सकते तो एक बार तो करें।

भगवान को देखने की दूरबीन

सब भगवान की माया है। दुःख आता है तो लोग बाह्य साधनों की तरफ देखते हैं। द्रौपदी भी जब तक बाह्य साधनों की तरफ देख रही थी, तब तक उसे निराशा ही हाथ लग रही थी। फिर जब वह हृदय की गहराई में गयी तो भगवान एवं भगवान की शक्तियाँ वहीं तो थीं।

भगवान तो पास ही हैं। एक ही सत्ता सबमें व्याप रही है। वह त्रिगुणातीत है, ढका हुआ है। भगवान को देखना है तो दूरबीन चाहिए। बाह्य दूरबीन नहीं, इसके लिए दूसरी विशेष दूरबीन चाहिए – अंतःकरण की दूरबीन। पहले अंतःकरण को शुद्ध करें – एकाग्र करें, फिर आत्मविचार करके आत्मज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति करें तो परमात्मा प्रकट हो जायेगा, आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। अथवा तो पहले मुक्तात्मा होने की, तत्त्वज्ञान की तड़प बढ़ायें, फिर मन, बुद्धि और अंतःकरण से संबंध-विच्छेद कर अपने आत्मवैभव से जाग जायें।

तीन के सम्मिलन से जीव नंदनवन

हमारा दैनिक कौटुम्बिक जीवन इतना अशांत क्यों होता जा रहा है ? क्योंकि हमारे अंदर भावबल, क्रियाबल और प्राणबल इन तीनों शक्तियों का समन्वय हो जाय तो जीवन चमक जाता है। यदि भावबल शुद्ध नहीं है तो व्यक्ति समाज को पतन की तरफ ले जाने वाले काम करता है, जैसे – मारना-पीटना, शराब पीना और अन्य बुरे काम करना।

घर में देवरानी का भावबल प्रबल है और प्राणबल कमजोर है व जेठानी का प्राणबल प्रबल है और भावबल कमजोर है तो वे दोनों लड़ेंगी। यदि आमने-सामने नहीं लड़ें तो आँखों से तो एक दूसरे को नाराजगी के भाव से देखेंगी ही। और कुछ नहीं तो बर्तन बजाकर या बच्चों को पीटकर अपना गुस्सा प्रकट करेंगी। दोनों बलों का समन्वय नहीं है अतः लड़ती हैं। पिता में यदि इन बलों का अभाव हुआ तो वे सब सदस्यों को ठीक ढंग से नहीं चला सकेंगे, अपने से हीन व कमजोर को दबायेंगे और नाम लेंगे अनुशासन का।

अनुशासन में प्यार और सामने वाले का हित तथा शुद्ध ज्ञान और मंगल भावना नहीं भरी है तो वह अनुशासन अहंपोषक और शासितों को सताने वाला हो जायेगा। बिना प्यार का अनुशासन झगड़ा, तंगदिली और खिंचाव लायेगा। प्यार में से अनुशासन निकला तो मोह बन जायेगा। पिता का अनुशासन हो पर प्यार से मिला हुआ हो। इस प्रकार अगर हमारे जीवन में इन तीनों बलों का समन्वय नहीं है तो कुटुम्ब चलाने में असफल हो जायेंगे। योग की कुछ सामान्य तरकीबों का उपयोग करके हम इन तीनों बलों को अपने में सामंजस्य कर सकते हैं। जो बल कमजोर हैं उसको प्रबल कर सकते हैं।

प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, भावबल बढ़ता है। प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है, सेवा से क्रियाबल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है। भावबल, प्राणबल और क्रियाबल के विकास एवं ऊँची समझ से सहज समाधि का अपना स्वभाव बन जाता है तथा जीवन चमक उठता है। अपनी जीवनदृष्टि भी ऐसी होनी चाहिए कि त्याग भी नहीं, भोग भी नहीं अपितु समग्र जीवन सहज समाधि हो जाय। साधक की यह अभिलाषा होनी चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 238

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