मैं ग्वालियर आश्रम में सत्साहित्य सेवा केन्द्र में सेवा करता हूँ। 2 फरवरी 2013 को दोपहर 2.30 बजे फाइलें लेकर हिसाब कर रहा था तभी अचानक मैं कुर्सी से गिर गया। मेरा शरीर अकड़ने लगा, मुँह से झाग निकलने लगी और मैं बेहोश हो गया।
मुझे बाद में बताया गया कि आश्रम के साधकों ने मेरी हालत देखकर मुझे तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया गया। जाँच के बाद डॉक्टर ने कहा कि “मलेरिया का बुखार दिमाग पर चढ़ गया है और कुछ भी हो सकता है। अतः इसके घरवालों को सूचित कर शीघ्र बुला लें।”
ऐसी विकट परिस्थिति में तुरंत पूज्य बापू जी तक खबर पहुँचायी गयी। करूणासिंधु बापू जी ने कहा कि “उसे सुबह-शाम तुलसी का रस दो और सतराम को कहना कि बापू जी ने कहा है कि तू ठीक हो जायेगा।” साथ ही होश में आने पर आरोग्य मंत्र का जप करने का भी निर्देश दिया। बापू जी तक खबर का पहुँचना और मेरी स्थिति में सुधार होना – ये एक ही समय हुई दो घटनाएँ मेरे गुरुभाइयों ने प्रत्यक्ष देखीं। 2-3 घंटों में ही मैं पूरी तरह होश में आ गया।
कैसी है गुरुदेव की करूणा-कृपा, जो अपने भक्तों की पुकार सुनते ही उनकी तुरंत सँभाल करते हैं। 3-4 दिनों में ही मैं स्वस्थ हो आश्रम आ गया। लौटते समय डॉक्टर ने कहा कि “आपका बहुत बुरा समय था जो कि टल गया।”
आश्चर्य की बात एक और भी है, 30 जनवरी को मेरे लिए पूज्यश्री से प्रयाग कुम्भ के सत्संग में जाने की आज्ञा माँगी गयी थी परंतु अंतर्यामी गुरुदेव मेरा नाम सुनकर मौन हो गये थे। जो उस अकाल पुरुष परमात्मा में एकाकार हुए हों, उन्हें तीनों कालों का पता चल जाये तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ! अगर मैं आज्ञा बिना चला जाता तो पता नहीं क्या दुर्गति होती ! आज्ञा न मिलने पर रूका रहा तो सुरक्षा हो गयी, जीवनदान मिल गया।
गुरु की सेवा साधु जाने। गुरूसेवा क्या मूढ़ पिछाने।।
मैं तो इसमें जोडना चाहूँगा-
गुरुआज्ञा फल साधक जाने। गुरुआज्ञा क्या मूढ़ पिछाने।।
ऐसे अंतर्यामी, परम सुहृद पूज्य बापू जी के श्रीचरणों में शत-शत प्रणाम।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2013, पृष्ठ संख्या 31, अंक 244
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