शिष्य के जीवन में जो भी चमक, आभा, विशेषता दिखती है, वह उसकी इस जन्म की या अनेकों पूर्वजन्मों की गुरुनिष्ठा की ही फल है। कभी-कभी प्रसिद्धि के शिखर पर चढ़ते-चढ़ते शिष्य मानने लगता है कि यह प्रतिभा खुद की है। बस तभी से उसका पतन शुरु हो जाता है। परंतु गुरुदेव ऐसे करूणावान होते हैं कि वे शिष्य को पतन की खाई में गिरने से बचाते ही नहीं बल्कि उसकी उन्नति के लिए भी हर प्रयास करते रहते हैं।
एक शिष्य ने अपने गुरु से तीरंदाजी सीखी। गुरु की कृपा से वह जल्दी ही अच्छा तीरंदाज बन गया। सब ओर से लोगों द्वारा प्रशंसा होने लगी। धीरे-धीरे उसका अहंकार पोषित होने लगा। वाहवाही के मद में आकर वह अपने को गुरु जी से भी श्रेष्ठ तीरंदाज मानने लगा।
मान-बड़ाई की वासना मनुष्य को इतना अंधा बना देती है कि वह अपनी सफलता के मूल को ही काटने लगता है। शिष्य का पतन होते देख गुरु का हृदय करूणा से द्रवीभूत हो गया। उसे पतन से बचाने के लिए उन्होंने एक युक्ति निकाली।
एक दिन गुरु जी उसे साथ लेकर किसी काम के बहाने दूसरे गाँव चल पड़े। रास्ते में एक खाई थी, जिसे पार करने के लिए पेड़ के तने का पुल बना था। गुरु जी उस पेड़ के तने पर सहजता से चलकर पुल के बीच पहुँचे और शिष्य से पूछाः “बताओ, कहाँ निशाना लगाऊँ ?”
शिष्यः “गुरुजी ! सामने जो पतला सा पेड़ दिख रहा है न, उसके तने पर।” गुरु जी ने एक ही बार में लक्ष्य भेदन कर दिया और पुल के दूसरी ओर आ गये। फिर उन्होंने शिष्य से भी ऐसा करने को कहा। अहंकार के घोड़े पर सवार उस शिष्य ने जैसे ही पुल पर पैर रखा, घबरा गया। जैसे तैसे करके वह पुल के बीच पहुँचा किंतु जैसे ही उसने धनुष उठाया, उसका संतुलन बिगड़ने लगा और वह घबराकर चिल्लायाः “गुरुजी ! गुरु जी ! बचाइये, वरना मैं खाई में गिर जाऊँगा।”
दयालु गुरु जी तुरंत गये और शिष्य का हाथ पकड़कर दूसरी तरफ ले आये। शिष्य की जान-में-जान आयी। उसका सारा अभिमान पानी-पानी हो गया। अब उसे समझ आ गया कि उसकी सारी सफलताओं के मूल गुरु ही थे। वह अपने गुरु क चरणों में साष्टांग पड़ गया और क्षमा माँगते हुए बोलाः “गुरुदेव ! प्रसिद्धि के अहंकार में आकर मैं अपने को आपसे भी श्रेष्ठ मानने की भूल कर रहा था। मैं भूल गया था कि मुझे जो मिला है वह सब आपकी कृपा से ही मिला है। गुरु के कृपा-प्रसाद को मैं मूर्खतावश खुद की शक्ति समझ बैठा था। जैसे हरे भरे-पौधे का आधार उसका मूल ही है, वैसे ही मेरी योग्यता का आधार आप ही हैं। हे गुरुदेव ! मुझे क्षमा करें और ऐसी कृपा कीजिये कि फिर मेरी ऐसी दुर्बुद्धि न हो।” शिष्य के आर्त हृदय की प्रार्थना और पश्चाताप देख गुरु जी मुस्कराये, अपनी कृपादृष्टि बरसायी और आश्रम की ओर चल दिये।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 10 अंक 247
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