परमात्माप्राप्ति में बाधक असुर और उन्हें मारने के उपाय-पूज्य बापू जी

परमात्माप्राप्ति में बाधक असुर और उन्हें मारने के उपाय-पूज्य बापू जी


पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में आया है कि जय विजय भगवान के पार्षद थे । ‘जय’ माने ‘अहंता’ और ‘विजय’ माने ‘ममता’ । भगवान सच्चिदानंद होने पर भी अहंता और ममता के कारण अनुभव में नहीं आते । जय विजय भगवान के पार्षद बने हुए हैं लेकिन उन्हें अपनी अहंता है, अपने पद की ममता है ।

सनकादि ऋषि ब्रह्मवेत्ता थे, उनको अपना सच्चिदानंद स्वभाव हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे हुए आँवले की तरह सुस्पष्ट एवं प्रत्यक्ष) था । सनकादि ऋषि योगबल से पहुँचे भगवान नारायण से मिलने । जय-विजय ने उनका अपमान करके 3-3 बार रोक दिया ।

सनकादि ऋषियों ने कहाः “तुम भगवान के धाम में हो फिर भी तुम्हारी अहंता-ममता नहीं गयी ! तुम दैत्य जैसा व्यवहार कर रहे हो और भगवान के पार्षद कहलाते हो ! 3 बार रोका है तो जाओ, तुमको 3 बार दैत्य योनि में भटकना पड़ेगा !”

सनकादि ऋषियों की नाराजगीभरी आवाज सुनकर भगवान नारायण आये । जय-विजय को बोलेः “तुम  बहुत उद्दण्ड हो गये थे, मुझे सजा देनी थी तो संत मेरा ही रूप हैं । ऋषियों ने जो उपदेश या शाप दिया है, वह उचित ही दिया है, ऐसा ही हो ।”

जय-विजय गिड़गिड़ाने लगे ।

भगवान ने कहाः “आखिर तुम मेरे सेवक हो, तुमको 3-3 बार जन्म लेना पड़ेगा तो हम भी आ जायेंगे तुम्हारे को उस-उस जन्म से पार करने के लिए ।”

वे ही जय-विजय हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु बने । हिरण्याक्ष को भगवान ने वाराह अवतार धारण करके मारा और हिरण्यकशिपु को मारने के लिए भगवान ने नृसिंह रूप धारण किया ।

सनक ऋषि ने  पूछाः “अच्छा, भगवान ! आप जाओगे अपने सेवकों को शुद्ध करने तो वह लीला देखने, आपके अवतरण में सहयोगी होने हम भी आयेंगे ।

भगवान ! आप भक्त की पुकार से आओगे तो हम आपके भक्त बन जायेंगे । हम हिरण्यकशिपु के घर प्रह्लाद हो के आयेंगे । वह हमको भगवद्भक्ति करने से रोकेगा-टोकेगा, डाँटेगा…. यही हमारा विरोधी वहाँ ज्यादा ऊधम करेगा तो आप वहाँ प्रकट होना ।

तो सनक ऋषि प्रह्लाद बन के आये । भगवान प्रह्लाद की तपस्या, समता के प्रभाव से हिरण्यकशिपु की उद्दण्डता को नियंत्रित करने के लिए एवं समाज को ज्ञान, भक्ति व लीला-अमृत चखाने के लिए नृसिंहरूप में आये ।

हिरण्यकशिपु ने वरदान माँगा था कि ‘मैं न दिन को मरूँ न रात को मरूँ….’

‘न अंदर मरूँ न बाहर मरूँ….’

अहंकार घर के अंदर भी नहीं मरता और बाहर भी नहीं मरता ।

‘न अस्त्र से मरूँ न शस्त्र से मरूँ….’

अहंकार अस्त्र-शस्त्र से भी नहीं मरता है ।

‘देवता से न मरूँ, दानव से न मरूँ, मानव से न मरूँ….’

अहंकार इन सभी साधनों से नहीं मरता है । यह कथा का अमृतपान कराने के लिए भगवान की साकार लीला है । तो अहंकार कैसे मरता है ?

भगवान ने देखा कि तेरे को जो भी वरदान मिले, उनसे विलक्षण अवतार भी तो हम अपने भक्त के लिए धारण कर सकते हैं ! तो नृसिंह अवतार…! धड़ तो नर का और चेहरा व नाखून सिंह के । अंदर न मरो, बाहर न मरो तो चौखट पर मरो । सुबह न मरो, शाम को न मरो तो संधिकाल में मरो ।

हमारे और ईश्वर के बीच जो अहंकार है वह संधिकाल में मरता है । श्वास अंदर गया और बाहर आया और उसके बीच जो संधिकाल है उसको देखोगे तो अहंकार गल जायेगा और ईश्वर सच्चिदानंद का स्वभाव प्रकट होगा ।

‘अस्त्रों-शस्त्रों से न मरूँ….’ लेकिन वह सूक्ष्म समझदारीरूपी पैने नाखूनों से मरता है ।

हिण्याक्ष ममता है और हिरण्यकशिपुर अहंता है । इन अहंता और ममता के कारण जो दुर्लभ नहीं है, निकट है ऐसा परमात्मा नहीं दिखता है । ये दो असुर हैं उसके द्वार पर जो ठाकुर जी से मिलने में अड़चन करते हैं तो अहंता और ममता को मारने का उपाय है ‘अजपा गायत्री’ अथवा उच्चारण करो ‘हरि ओऽऽऽ…म्’ तो हरि का ‘ह’ और ॐ का ‘म्’ – इसके बीच में जो संकल्प-विकल्प नहीं होगा, अहंकार की दाल नहीं गलेगी, चंचलता नहीं आयेगी, ममता नहीं घुसेगी  और दूसरा कुछ नहीं आयेगा । थोड़े दिन यह अभ्यास करो तो जैसे पतझड़ में पेड़ की बहुत सारी सफाई हो जाती है, ऐसे ही बहुत सारे संकल्प-विकल्प, अहंता-ममता के परिवार और वासनाओं की सफाई हो जायेगी । चित्त में शांति आने लगेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 328-329

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