Monthly Archives: August 2013

जन्माष्टमी व्रत की महिमा – पूज्य बापू जी


(श्रीकृष्ण जन्माष्टमीः 28 अगस्त 2013)

ब्रह्माजी सरस्वती को कहते हैं और भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्त उद्धव को कहते हैं कि ʹʹजो जन्माष्टमी का व्रत रखता है, उसे करोड़ों एकादशी व्रत करने का पुण्य प्राप्त होता है और उसके रोग, शोक, दूर हो जाते हैं।” धर्मराज सावित्री देवी को कहते हैं किः “जन्माष्टमी का व्रत सौ जन्मों के पापों से मुक्ति दिलाने वाला है।” उपवास से भूख-प्यास आदि कष्ट सहने की आदत पड़ जाती है, जिससे आदमी का संकल्पबल बढ़ जाता है। इन्द्रियों के संयम से संकल्प की सिद्धि होती है, आत्मविश्वास बढ़ता है जिससे आदमी लौकिक फायदे अच्छी तरह से प्राप्त कर सकता है।

इसका मतलब यह नहीं कि व्रत की महिमा सुनकर मधुमेह वाले या कमजोर लोग भी पूरा व्रत रखें। बालक, अति कमजोर तथा बूढ़े लोग अनुकूलता के अनुसार थोड़ा फल आदि खायें।

अकाल मृत्यु व गर्भपात से करे रक्षा

ʹभविष्य पुराणʹ में लिखा है कि ʹजन्माष्टमी का व्रत अकाल मृत्यु नहीं होने देता है। जो जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, उनके घर में गर्भपात नहीं होता। बच्चा ठीक से पेट में रह सकता है और ठीक समय पर बालक का जन्म होता है।ʹ

पुण्य के साथ दिलाये स्वास्थ्य लाभ

जन्माष्टमी के दिनों में मिलने वाला पंजीरी का प्रसाद वायुनाशक होता है। उसमें अजवायन, जीरा व गुड़ पड़ता है। इस मौसम में वायु की प्रधानता है तो पंजीरी खाने खिलाने का उत्सव आ गया। यह मौसम मंदाग्नि का भी है। उपवास रखने से मंदाग्नि दूर होगी और शरीर में जो अनावश्यक द्रव्य पड़े हैं, उपवास करने से वे खिंचकर जठर में आ के स्वाहा हो जायेंगे, शारीरिक स्वास्थ्य मिलेगा। तो पंजीरी खाने से वायु का प्रभाव दूर होगा और व्रत रखने से चित्त में भगवदीय आनंद, भगवदीय प्रसन्नता उभरेगी तथा भगवान का ज्ञान देने वाले गुरु मिलेंगे तो ज्ञान में स्थिति भी होगी। अपनी संस्कृति के एक-एक त्यौहार और एक-एक खानपान में ऐसी सुंदर व्यवस्था है कि आपका शरीर स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि में बुद्धिदाता का ज्ञान छलकता जाय। जन्माष्टमी के दिन किया हुआ जब अनंत गुना फल देता है। उसमें भी जन्माष्टमी की पूरी रात जागरण करके जब-ध्यान का विशेष महत्त्व है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 16, अंक 248

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गणेश जी श्रीविग्रह देता सुन्दर प्रेरणाएँ – पूज्य बापू जी


भगवान शिव ने की सर्जरी

जो इन्द्रिय-गणों का, मन बुद्धि गणों का स्वामी है, उस अंतर्यामी विभु का ही वाचक है ʹगणेशʹ शब्द। ʹगणानां पतिः इति गणपतिः।ʹ उस निराकार परब्रह्म को समझाने के लिए ऋषियों ने और भगवान ने क्या लीला की है ! कथा आती है, शिवजी कहीं गये थे। पार्वती जी ने अपने योगबल से एक बालक पैदा कर उसे चौकीदारी करने रखा। शिवजी जब प्रवेश कर रहे थे तो वह बालक रास्ता रोककर खड़ा हो गया और शिवजी से कहाः “आप अन्दर नहीं जा सकते।”

शिवजी ने त्रिशूल से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। पार्वती जी ने सारी घटना बतायी। शिवजी बोलेः “अच्छा-अच्छा, यह तुम्हारा मानस-पुत्र है तो हम भी इसमें अपने मानसिक बल की लीला दिखा देते हैं।” शिवजी ने अपने गणों से कहाः “जाओ, जो भी प्राणी मिले उसका सिर ले आओ।” गण हाथी का सिर ले आये और शिवजी ने उसे बालक के धड़ पर लगा दिया। सर्जरी की कितनी ऊँची घटना है ! बोले, ʹमेरी नाक सर्जरी से बदल दी, मेरा फलाना बदल दिया….ʹ अरे, सिर बदल दिया तुम्हारे भोले बाबा ने ! कैसी सर्जरी है !
और फिर इस सर्जरी से लोगों को कितना समझने को मिला !

समाज को अनोखी प्रेरणा

गणेश जी के कान बड़े सूप जैसे हैं। वे यह प्रेरणा देते हैं कि जो कुटुम्ब का बड़ा हो, समाज का बड़ा हो उसमें बड़ी खबरदारी होनी चाहिए। सूपे में अन्न-धान में से कंकड़-पत्थर निकल जाते हैं। असार निकल जाता है, सार रह जाता है। ऐसे ही सुनो लेकिन सार-सार ले लो। जो सुनो वह सब सच्चा न मानो, सब झूठा न मानो, सार-सार लो। यह गणेश जी के बाह्य विग्रह से प्रेरणा मिलती है।

गणेश जी की सूँड लम्बी है अर्थात् वे दूर की वस्तु की भी गंध लेते हैं। ऐसे ही कुटुम्ब का जो अगुआ है, उसको कौन, कहाँ, क्या कर रहा है या क्या होने वाला है इसकी गंध आनी चाहिए।

हाथी के शरीर की अपेक्षा उसकी आँखें बहुत छोटी हैं लेकिन सुई को भी उठा लेता है हाथी। ऐसे ही समाज का, कुटुम्ब का अगुआ सूक्ष्म दृष्टिवाला होना चाहिए। किसको अभी कहने से क्या होगा ? थोड़ी देर के बाद कहने से क्या होगा ? तोल-मोल के बोले, तोल-मोल के निर्णय करे।

भगवान गणेश जी की सवारी क्या है ? चूहा ! इतने बड़े गणपति चूहे पर कैसे जाते होंगे ? यह प्रतीक है समझाने के लिए कि छोटे-से-छोटे आदमी को भी अपनी सेवा में रखो। बड़ा आदमी तो खबर आदि नहीं लायेगा लेकिन चूहा किसी के भी घर में घुस जायेगा। ऐसे छोटे से छोटे आदमी से भी कोई न कोई सेवा लेकर आप दूर तक की जानकारी रखो और अपना संदेश, अपना सिद्धान्त दूर तक पहुँचाओ। ऐसा नहीं कि चूहे पर गणपति बैठते हैं और घर घर जाते हैं। यह संकेत है आध्यात्मिक ज्ञान के जगत में प्रवेश पाने का

गणेश-विसर्जन का आत्मोन्नतिकारक संदेश

गणेशजी की मूर्ति तो बनी, नाचते-गाते विसर्जित भी की, निराकार प्रभु को साकार रूप में मानकर फिर साकार आकृति भी विसर्जित हुई लेकिन इस भगवद्-उत्सव में नाचना-कूदना झूमना तुम्हारे दिल में कुछ दे जाता है। रॉक और पॉप म्यूजिक पर जो नाचते-कूदते हैं, उनको भी कुछ दे जाता है जैसे – सेक्सुअल आकर्षण, चिड़चिड़ा स्वभाव, जीवनशक्ति का ह्रास…. लेकिन गजानन के निमित्त जो नाचते-गाते झूमते हैं, उन्हें यह उत्सव सूझबूझ दे जाता है कि सुनो सब लेकिन छान-छानकर सार-सार ही मन में रखो। दूर की भी गंध तुम्हारे पास होनी चाहिए। छोटे-से-छोटे आदमी का भी उपयोग करके अपना दैवी कार्य करो।

गणेश विसर्जन कार्यक्रम आपको अहंकार के विसर्जन, आकृति में सत्यता के विसर्जन, राग-द्वेष के विसर्जन का संदेश देता है। बीते हुए का शोक न करो। जो चला गया वह चला गया। जो चीज-वस्तु बदलती है उसका शोक न करो। आने वाले का भय न करो। वर्तमान में अहंकार की, नासमझी की दलदल में न गिरो। तुम बुद्धिमत्ता बढ़ाने के लिए ʹ गं गं गं गणपतये नमःʹ का जप किया करो और बच्चों को भी सिखाओ। बिल्कुल सुंदर व्यवस्था हो जायेगी !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 248

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दुःखों की कमी नहीं फिर भी दुःखी नहीं ! – पूज्य बापू जी


(श्री कृष्ण जन्माष्टमीः 28 अगस्त 2013)

श्रीकृष्ण के जीवन में आध्यात्मिक उन्नति व वैदिक ज्ञान ऐसा था कि नास्तिक लोग भी उनको योगिराज, नीतिज्ञशिरोमणि, उच्च दार्शनिक मानते थे। मुसलमानों में भी रसखान, ताज बेगम, रेहाना तैयय्यब और रहीम खानखाना आदि लोगों ने श्री कृष्ण की भक्ति और प्रशंसा करके अपना जीवन धन्य किया।

श्रीकृष्ण संघर्षों का तगड़ा अनुभव करते हुए संघर्षों के बीच कैसे मुस्कराते रहे, यह उनकी लीलाओं और जीवन-संदेश में है। श्रीकृष्ण के आने के निमित्त माँ-बाप को कारावास मिला, उनके छः भाई मारे गये और स्वयं श्री कृष्ण जन्में हैं कारागृह में ! जन्मते ही पराये घर लिवाये गये। श्रीकृष्ण अष्टमी को प्रकटे हैं और चौदस को पूतना जहर भरकर आयी। जहरमिश्रित दूध पीना पड़ा। दो महीने के हुए तो शकटासुर आ गया, कभी धेनुकासुर आया, कभी बकासुर आया और कृष्ण को निगल गया। गायें चरानी पड़ीं, नृत्य सिखाने वाले तोक का तमाचा सहना पड़ा, कंस मामा का पूरा राजशासन विरोधी था। 17 बार शत्रु को मार भगाया परंतु 18वीं बार स्वयं भागना पड़ा। एक ही वस्त्र पर कई महीने रहे और फिर छुपकर द्वारिका बसायी। न जाने कितने उपद्रव हुए लेकिन आधिभौतिक उपद्रवों को श्रीकृष्ण ने महत्त्व नहीं दिया तो आपको भी महत्त्व नहीं देना चाहिए। कृष्ण अपने आनंदस्वभाव में रहे तो आपको भी आनंदस्वभाव में रहना चाहिए। कृष्ण अपने ज्ञान प्रकाश में जिये तो आपको भी ज्ञान प्रकाश में जीना चाहिए।

ʹमहाभारतʹ में आता है कि श्रीकृष्ण के जीवन में दुःख के निमित्तों की कमी नहीं है लेकिन शोक की एक रेखा भी नहीं है। सदा हँसते रहे, मुस्कराते रहे, गीत गाते रहे। कैसी भी परिस्थितियाँ आयीं लेकिन भगवान श्रीकृष्ण उन परिस्थितियों को सत्य मान के मुसीबतों का हौवा बनाकर अपने सिर पर ढोते नहीं थे बल्कि उऩ पर नाचते थे। महाभारत का युद्ध हो रहा है पर श्रीकृष्ण की बंसी बज रही है। कुछ के कुछ आरोप लग रहे हैं और बंसी बज रही है। जयकारे लग रहे हैं पर चित्त में समता है।

सुख-दुःख में कैसे जियें ? सुख-दुःख को साधन कैसे बनायें ? यह सब श्रीकृष्ण के अनुभव की पोथी ʹगीताʹ में है। गीता श्रीकृष्ण के अनुभवजन्य ज्ञान की स्मृति (स्मृति-ग्रंथ) है। गीता किसी सम्प्रदाय अथवा मजहब की किताब नहीं है। इसमें श्रीकृष्ण के द्वारा जितना बुद्धि का आदर किया गया है, ऐसा और किसी जगह पर नहीं है। गीता कैसी भी परिस्थिति में अपनी बुद्धि को डाँवाडोल न होने देने की सीख देती है।

जैसे अर्जुन के जीवन में उतार-चढ़ाव व दुःख आये लेकिन भगवान के आगे दुखड़ा रोया तो वह दुःख भी ʹविषादयोगʹ हो गया। अर्जुन दुःखी हुए, बोलेः ʹमेरा जीवन चलेगा ही नहीं….।ʹ सारी मनोवृत्तियाँ शोक से भर गयीं और उत्साह ठंडा हो गया लेकिन श्रीकृष्ण ने ज्ञान तथा उत्साह भर दिया तो महाभारत का युद्ध भी आराम से जीत लिया।

श्रीकृष्ण बहुत ऊँची बात बताते हैं कि दुष्कृत और सुकृत से आप ऊपर उठ जाओ। ऐसा और कोई मार्ग नहीं है, जैसा श्रीकृष्ण बता रहे हैं। पैसे चले गये तो दुःख हो गया और आ गये तो सुख हो गया लेकिन गीता तो कहती है – जो आया वह भी स्वप्नतुल्य, गया वह भी स्वप्नतुल्य।

श्रीकृष्ण आनंद-अवतार हैं। ʹयह खाऊँ, यह भोगूँ, यह करूँ, यह न करूँ….ʹ – ऐसी कोई चाह उनको नहीं है इसलिए कृष्ण आनंद में हैं। कृष्ण खुले आनंद में हैं तो उनको देखकर गौएँ, बछड़े और गोप-गोपियाँ आनंदित हो जाते हैं।

देवकी की कोख से श्रीकृष्ण जन्में हैं लेकिन जितनी प्रीति यशोदा को मिलती है उतनी देवकी को नहीं। देवकी शरीर से जन्म देती है लेकिन यशोदा तो हृदयपूर्वक यश दे रही है। यशोदा तो आप बन सकते हैं। जरूरी नहीं कि आपके पेट से भगवान पैदा हों, आपके हृदय में भगवान अभी भी प्रकट हो सकते हैं। वाह ! वाह !! हर परिस्थिति में वाह ! भगवान को यश दो तो आपकी बुद्धि यशोदा हो जायेगी और आत्म कृष्ण तो हैं ही हैं। श्रीकृष्ण जो आकृति लेकर आये उतने ही श्रीकृष्ण नहीं हैं, वेदों में श्रीकृष्ण के प्राकट्य से पहले भी ʹकृष्णʹ का नाम था। जो कर्षित कर दे, आकर्षित, आनंदित, आह्लादित कर दे उस अंतर्यामी विभु परमेश्वर का नाम कृष्ण है।

मनुष्य जितनी ऊँचाई का धनी हो सकता है उतनी ऊँचाई के धनी थे अर्जुन और श्रीकृष्ण उनके साथ में थे। अर्जुन सशरीर स्वर्ग जाते हैं, उर्वशी जैसी अप्सरा के मोह-जाल को ठुकरा देते हैं, स्वयं श्री कृष्ण उनके रथ की बागडोर सँभालते हैं फिर भी अर्जुन का दुःख नहीं मिटता। जब श्रीकृष्ण कहते हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।ʹ (गीताः 18.62)

शरीर से जो करो, उस परमात्मा को समझने के लिए करो। मन से जो सोचो, उसके लिए सोचो और बुद्धि से जो निर्णय करो, अपने सत्-चित्-आनंदस्वभाव की तरफ जाने के लिए ही करो तो दुःखों से पार हो जाओगे, जैसे अर्जुन को ज्ञान हो गया – ʹनष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा…ʹ

मोह बोलते हैं उलटे ज्ञान को। हम शरीर नहीं हैं लेकिन मानते हैं अपने को शरीर ! मोह सभी व्याधियों का मूल है। ʹरामायणʹ में कहा गयाः

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

गीता मोह मिटाने की और अपने सच्चिदानंद स्वभाव में जगने की सुंदर युक्तियाँ देती है।

तो श्रीकृष्ण का प्राकट्य कितना महत्त्वपूर्ण है और कितना रहस्यमय है ! श्री कृष्ण की महत्ता समझकर आप श्रीकृष्ण के भक्त हो जाओ इसलिए जन्माष्टमी नहीं है। आप कृष्ण के अनुभव से सम्पन्न होकर निर्दुःख जीवन जियो, मुक्तात्मा, दिव्यात्मा, समाहित आत्मा (शांतात्मा) बनो। आप जिस मजहब में हो, जिस इष्टदेव को मानते हों, चाहे आपके इष्टदेव कृष्ण हों, शिव हों, राम हों लेकिन कृष्ण की जीवनलीलाओं से आप अपने जीवन को लीलामय बना लीजिये। आपका जीवन बोझ न हो इसलिए जन्माष्टमी का पर्व है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 248

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