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प्रेम में माँग नहीं होती – पूज्य बापू जी


नृसिंह भगवान ने जब हिरण्यकशिपु को मारा तब वे बड़े कोप में थे। लक्ष्मी जी भी उन्हें शांत न कर सकीं, ऐसा उग्र रूप था। ब्रह्माजी ने प्रह्लाद से कहाः “बेटा ! अब तुम्हीं भगवान के पास जाकर उन्हें शांत करो।”

प्रह्लाद ने पास में जाकर भगवान की स्तुति की। प्रह्लाद को देखते ही भगवान वात्सल्यभाव से भर गये। माथा सूँघने लगे, स्नेह करने लगे। नृसिंह भगवान कहते हैं- “प्रह्लाद ! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।”

प्रह्लाद क्या बोलता हैः “प्रभु ! आपसे कुछ माँगने के लिए मैंने आपको नहीं चाहा था। आपसे कुछ माँगूँ तो माँगी हुई चीज बड़ी हो गयी, आप छोटे हो गये। उस चीज की महत्ता हो गयी।”

जो गुरु से कुछ माँगता ह तो गुरु से स्नेह नहीं करता, अपनी वासना को माँगता है। भगवान से माँगता है तो भगवान को स्नेह नहीं करता अपनी ख्वाहिश का गुलाम है।

प्रह्लाद बोलता हैः “प्रभु ! आपसे बढ़कर क्या है जो माँगूँ ? अगर फिर भी आप देना चाहते हो तो इतनी कृपा कर दीजिये कि मेरे हृदय में किसी कामना का बीज अंकुरित ही न हो।” भगवान ने प्रह्लाद को हृदय से लगा लिया।

इच्छा बहुत गंदी होती है। माँगे आदमी को तुच्छ बना देती हैं। गहरी नींद में कोई माँग नहीं रहती है तो कितनी शांति रहती है ! सुबह उठते हैं, जब तक माँग शुरु नहीं हुई तब तक बड़ी शांति रहती है। जितनी गहरी और ज्यादा माँग, उतना आदमी तुच्छ, धोखेबाज, कूड़-कपटी !

सभी माँगों को हटाने के लिए भगवान को पाने की माँग रख दो बस। जब सब माँगें हट जायेंगी तो भगवान की माँग भी हट जायेगी क्योंकि भगवान स्वतः बेपर्दा हो जायेंगे।

सूरदास अकेले कहीं जा रहे थे। रास्ते का ज्ञान नहीं था। भीतर कोई माँग नहीं थी। तेरी मर्जी पूरण हो…. तो श्री कृष्ण आये और सूरदास का हाथ पकड़ लिया।

बोलेः “चलो, मैं दिखाता हूँ रास्ता।”

कृष्ण ने हाथ पकड़ा तो सूरदास समझ गये। बाहर की आँखें तो नहीं थीं लेकिन समझ गये कि ये हाथ कोई साधारण हाथ नहीं हैं। जो सबमें रम रहा है, सबको आकर्षित करता है, कभी कृष्ण बनता है, कभी राम बनता है, कभी अंतरात्मा हो के प्रेरणा देता है, वही है।

सूरदास का हाथ कृष्ण ने पकड़ा था और वे अपना हाथ छुड़ाकर कृष्ण को पकड़ने जा रहे थे। भगवान बोलेः “तुम मेरे को क्यों पकड़ते हो, मैं तुमको पकड़ता हूँ।” कृष्ण अपने मायाबल से छूट गये।

सूरदास ने चुनौती दे दी कि “मुझे दुर्बल जानकर अपना हाथ छुड़ाकर जाते हो लेकिन सबल तो आपको तब मानूँगा जब मेरे हृदय में से निकलकर जा सको।” माँग नहीं है तो भगवान को चुनौती दे दी।

जो किसी के भरोसे सुखी होना चाहता है वह इच्छाओं का गुलाम है और जो केवल ईश्वर के भरोसे रहना चाहता है, रामरस में तृप्त रहना चाहता है वह आशाओं का स्वामी है। आशाओं का जो स्वामी हो जाता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 11 अंक 248

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परिप्रश्नेन


प्रश्नः हमें बार-बार भगवान की महिमा सुनने को मिलती है, बार-बार सत्संग सुनते हैं फिर भी ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य अभी निर्धारित नहीं हो पाया, निश्चय नहीं कर पाया, इसका क्या कारण है ?

पूज्य बापू जीः ʹईश्वर के सिवाय कहीं भी मन लगाया तो अंत में रोना ही पड़ेगा।ʹमन को समझाया करो। ʹईश्वर की ओर पुस्तकʹ पढ़ा करो। ʹश्री योग वाशिष्ठ महारामायणʹ पढ़ने को मिल जाये तो अपने-आप लक्ष्य निर्धारित हो जायेगा। लक्ष्य निर्धारित किये बिना उन्नति का रास्ता नहीं खुलता। कभी-कभी श्मशान में जाओ और अपने मन को बताओ कि ʹआखिर यहीं आना है।ʹ मैं ऐसे ही करता था। मेरे पिता जी का शरीर छूट गया था न, मैं लगभग दस साल का था। कंधा देकर श्मशान में ले गया, फिर अपने मन को समझाया कि ʹइतने बड़े होकर, बूढ़े हो के मरेंगे तो ऐसे…. और अभी मर जायें तो ?” उसने बच्चों का श्मशान दिखाया कि यहाँ दफना देते हैं उनको। तो फिर जो बच्चों का श्मशान था, उधर जाकर बैठता था। अपने मन को बोलता था, ʹअभी मरेगा तो इधर, बाद में मरेगा तो जहाँ पिता जी जलाये गये….ʹ – आखिर यह है संसार !

तो संसार की नश्वरता और आत्मा की अमरता को याद करके अपना ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य बना लेना चाहिए, मजबूत कर लेना चाहिए। संतों का जीवन-चरित्र पढ़ने को मिले, श्मशान में जाने को मिले तो अच्छा है। माइयाँ तो नहीं जायें, अपशकुन होता है। आप ईश्वर की ओर पुस्तक पढ़ो तो उसमें श्मशान यात्रा का वर्णन है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 12, अंक 248

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मेरा उद्देश्य भी वही है – पूज्य बापू जी


जन्माष्टमी श्रीकृष्ण का यश बढ़ाने वाली है, ऐसा मैं नहीं मानता हूँ। यह तो श्रीकृष्ण के अनुभव से मानवता का मंगल करने वाली है, ऐसा मेरा अपना मंतव्य है। दुनिया के हर मजहब, पंथ सम्प्रदाय का पुजारी इस अटपटे और अनोखे, रसमय अवतार के अनुभव से बहुत कुछ समझ सकता है।

श्रीकृष्ण ऐसे समर्थ हैं कि कभी चतुर्भुजी बन जाते हैं फिर द्विभुजी बन जाते हैं। जरूरत पड़ी तो युधिष्ठिर के यज्ञ में सेवाकार्य ढूँढ लिया, कौन-सा ? साधु-संतों के चरण धोना, उनको भोजन कराना और जूठी पत्तलें उठाना। कोई व्यक्ति बड़े पद पर पहुँच जाता है तो उसको अपनी कार चलाने में भी शर्म आती है, अपना बड़प्पन सँभालने में इतना खो जाता है, पागल हो जाता है ! लेकिन भगवान का यह कितना बड़प्पन है कि बड़प्पन सँभालने की जरूरत ही नहीं पड़ती। छोटे-से-छोटा काम कर लेते हैं। कितना फासला है !

श्रीकृष्ण का अवतार सभी के मंगल के लिए है। आप देखोगे तो श्रीकृष्ण का जीवन समस्याओं से भरा है। पूरा जीवन विघ्न बाधा, निंदा, संघर्ष और आकर्षण, प्रेम-माधुर्य से भरा था। प्यार प्रेम भी बहुत था और विरोध-विघ्न भी बहुत थे। न प्यार-प्रेम में फँसे न विरोध में। वृंदावन में छोड़ दिया तो छोड़ दिया, मुड़कर गये नहीं। प्रजा का शोषण हो रहा था तो अर्जुन को उत्साहित किया। धृतराष्ट्र ने संदेशा भेजा कि ʹश्रीकृष्ण ! तुम चाहो तो युद्ध रूक सकता है।ʹ

कृष्ण ने कहाः “तुम्हारी यह बात तो ठीक है लेकिन यदि युद्ध रूका और दुर्योधन ऐसा ही बना रहा तो समाज का क्या हाल होगा ? समाज का शोषण होता रहे और युद्ध रूके वह किस काम का ? क्रांति के बाद शांति आती है। शोषित व्यक्ति शोषित होते रहें और हम युद्ध रोकने का प्रयास करें तो यह अधर्म होगा।”

अर्जुन तो युद्ध करने को तैयार ही नहीं था। श्रीकृष्ण चुप बैठते तो भी युद्ध रूक जाता, अर्जुन साधु बाबा बन जाते लेकिन कृष्ण बोलते हैं-

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।

जो समाज का शोषण करते हैं उनको तपाने वाले परंतप ! उठो।

अर्जुन ने इधर-उधर की धार्मिक बातों को सुनाकर छटकना चाहा लेकिन श्रीकृष्ण ने उसके सारे तर्क बेबुनियाद साबित कर दिये। ज्ञान में श्रीकृष्ण ऐसे हैं कि बिल्कुल तटस्थ !

ʹआधिभौतिक क्या होता है ? आधिदैविक क्या होता है ? अध्यात्म क्या होता है ?ʹ अर्जुन को ऐसे प्रश्न मिले कि जिज्ञासा जगी और श्रीकृष्ण ने उसकी जिज्ञासा की पूर्ति करके उसे ऐसी  जगह पहुँचाया जहाँ स्वयं पहुँचे थे ! ऐसा जगत का कोई गुरु, जगत का हितैषी कभी-कभी धरती पर आता है, जो आत्मदेव में स्वयं पहुँचा हो।

तो तुम्हारे अहं की मटकी फूटे, कन्हैया का ऐसा प्रेमभरा रस लग जाय ताकि आपका मंगल हो जाये। मटकी फोड़ना मेरा उद्देश्य नहीं है। मटकी के भीतर छुपा हुआ जो मधुमय मधुरस है, नित्य नवीन रस है वह ब्रह्मसुख प्रकटे। श्रीकृष्ण ने जीवनभर वही किया और मेरा भी उद्देश्य वही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 28, अंक 248

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