हनुमानजी श्रीरामजी की आज्ञा से दूत बनकर सीताजी के पास लंका जा रहे थे। रास्ते में देवताओं, गंधर्वों आदि ने उनके बल, पराक्रम व सेवानिष्ठा की परीक्षा के लिए नागमाता सुरसा को प्रेरित किया। तब सुरसा ने विकराल राक्षसी का रूप बनाया और समुद्र लाँघ रहे हनुमान जी को घेरकर अट्टहास करने लगीः “हाઽઽઽ….. हाઽઽઽ…. हाઽઽઽ….. कपिश्रेष्ठ ! आज विधाता ने तुम्हें मेरा भोजन बनाया है, मैं तुम्हें नहीं छोड़ूँगी। तुम शीघ्र मेरे मुँह में आ जाओ।” ऐसा कहकर उसने अपना भयंकर मुँह खोला।
एक सच्चे सेवक के लिए स्वामी की सेवा, उनकी आज्ञा से बढ़कर कुछ नहीं होता। ʹराम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।ʹ – ऐसी निष्ठावाले हनुमानजी ने नम्रतापूर्वक सुरसा से कहाः “देवी ! मैं श्रीराम जी की आज्ञा से लंका जा रहा हूँ। सीता जी के दर्शन कर राम जी से जब मिल लूँगा, तब तुम्हारे मुँह में आ जाऊँगा। यह तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ।”
सुरसा हँसने लगीः “नहीं अंजनीसुत ! मुझे विधाता ने वर दिया है कि ʹकोई तुम्हें लाँघकर आगे नहीं जा सकता।ʹ तुम्हें मेरे मुँह से प्रवेश करके ही आगे जाना होगा।”
एक ओर मृत्यु तो दूसरी ओर स्वामी की आज्ञा थी। ऐसी विकट परिस्थिति में भी हनुमान जी विचलित नहीं हुए बल्कि अपनी अंतर्यामी राम में शांत हो गये। तुरंत अंतर्प्रेरणा मिली और वे सुरसा से बोलेः “तो ठीक है, तुम अपना मुँह इतना विशाल बनाओ की मुझे समा सके।” सुरसा ने अपना मुँह 1 योजन (8मील या करीब 13 किलोमीटर) विस्तृत बना लिया तो हनुमानजी 10 योजन बड़े हो गये। यह देखकर सुरसा ने अपना मुँह 20 योजन जितना फैला दिया। तब हनुमान जी 30 योजन के हो गये। बढ़ते-बढ़ते हनुमानजी जब 90 योजन शरीरवाले हुए तब सुरसा ने अपने मुँह का विस्तार 100 योजन बना लिया, जो एक भयंकर नरक के समान दिख रहा था।
तब बुद्धिमान वायुपुत्र ने झट् से अपना शरीर अँगूठे जितना बनाया और तीव्र वेग से सुरसा के मुँह में प्रवेश कर बाहर निकल आये। वे सुरसा से बोलेः “नागमाता ! मैं तुम्हारे मुँह में प्रवेश करके आ चुका हूँ, इसके तुम्हारा वरदान भी सत्य हो गया। अब मैं श्रीरामजी की सेवा में जा रहा हूँ।”
हनुमानजी की स्वामीनिष्ठा और सेवा में तत्परता देखकर सुरसा ने अपने असली रूप में प्रकट होकर उनको सेवा में शीघ्र सफलता का आशीर्वाद दिया। हनुमानजी की अपने इष्ट की सेवा में निष्ठा एवं बुद्धि-चातुर्य देखकर सब देवता, गंधर्व आदि भी उनकी प्रशंसा करने लगे।
इस प्रकार पहले तो हम अपने जीवन में ऊँचा लक्ष्य बना लें, जैसे हनुमानजी ने लक्ष्य बनाया – अपने इष्ट, अपने आध्यात्मिक पथप्रदर्शक की निष्काम सेवा का। दूसरा, हम अपने उस सत्संकल्प, अपने उस ऊँचे लक्ष्य के प्रति इतने दृढ़ हो जायें कि हमारे भी जीवन में हनुमानजी की वह अडिगता, निष्ठा हर प्रकार से फूट निकले कि ʹप्राणिमात्र के परम हितैषी मेरे सर्वेश्वर का दैवी कार्य किये बिना मुझे विश्राम कहाँ ?ʹ और तीसरी बात, कार्य के बीच-बीच में एवं जब विकट परिस्थितियाँ आयें तब अपने हृदय में सत्ता-स्फूर्ति-सामर्थ्य के केन्द्र के रूप में सदैव विराजमान उस अंतर्यामी में थोड़ा शांत हो जायें, निःसंकल्प हो जायें। इससे दैवी कार्य को उत्तम ढंग से सम्पन्न करने की सुन्दर सूझबूझ व सत्प्रेरणा हमें मिलेगी। सब हमारी प्रशंसा भी कर लें तो भी हमारी अपनी देह में नहीं, अंतर्यामी में आत्मीयता, निष्ठा और सजगता सुदृढ़ होने से हम अपने ऊँचे लक्ष्य से गिर नहीं पायेंगे और केवल उस दैवी कार्य को ही नहीं, अपने जीवन को भी परम सफल बना लेंगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 249
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