जिन्होंने पिलाया भक्तिरस, उन्हें हमने क्या दिया ?

जिन्होंने पिलाया भक्तिरस, उन्हें हमने क्या दिया ?


किसी भी संत की जीवन गाथा देखेंगे तो यह जानने को मिलेगा कि उन्हें अपने जीवन में कई यातनाएँ सहनी पड़ीं। भक्तिमती मीराबाई भी ऐसी ही एक संत थीं जिन्होंने अपने जीवन में अति कष्ट सहा परंतु भगवदभक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा।

मीराबाई का देवर राणा विक्रमादित्य नासमझ और कुबुद्धि था। वह मीराबाई के भजन-पूजन, सत्संग में विघ्न उत्पन्न करने लगा। इसका प्रमाण मीराबाई के इस पद में आता हैः

सासू लड़े  म्हारी नणद खिजावे देवर रह्यो रिसाय।

पेहरो बिठायो चौकी मेली तालो दियो जड़ाय।।

मीराबाई को प्रताड़ित करने के लिए राणा विक्रमादित्य ने कई नीच हथकंडे अपनाये। उसने मीराबाई के लिए भगवान का चरणामृत बताकर हलाहल विष भेजा। विष-प्रयोग असफल रहा तो एक पिटारी में काला नाग बंद करके शालिग्राम के नाम से भेजा। मीराबाई कहती हैं-

राणा भेज्या विष रा प्याला चरणामृत कर पी जाणा।।

काला नाग पिटारयां भेज्या शालगराम पिछाणा।

कभी जहरीले तीक्ष्ण काँटोंवाली शैय्या (शूल सेज) मीरा के लिए भेजी गयी तो कभी मीरा को भूखे शेर के पिंजड़े में पहुँचा दिया गया लेकिन मीराबाई को मारने के ये सभी दुष्प्रयत्न असफल साबित हुए।

एक बार मीराबाई की ख्याति सुनकर उनके कीर्तन में आया अकबर भावविभोर हुआ और उसने एक मोतियों की माला रणछोड़जी के लिए मीराबाई को भेंट कर दी। इस वजह से राणा द्वारा मीरा पर चारित्रिक लांछन लगाया गया और मीराबाई की काफी बदनामी हुई। (इस प्रसंग का उल्लेख भक्तमाल में मिलता है।)

सोचने की बात है कि जिनके पदों को, वचनों को पढ़-सुनकर और गा के लोगों के विकार मिट जाते हैं, ऐसे मीराबाई जैसे पवित्र संतों पर लगाये गये चारित्रिक लांछन क्या कभी सत्य हो सकते हैं ? और उन्हें सत्य मान के उनसे लाभान्वित होने से वंचित रहने वाले भोले लोगों का कैसा दुर्भाग्य !

अब राणा इतना क्षुब्ध हो उठा कि उसने स्वयं अपने हाथों से मीराबाई को मारने का निश्चय किया। तलवार लेकर उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ परंतु ईश्वरकृपा से वह इसमें भी सफल न हो सका।

इस प्रकार मीराबाई के लिए नित्य नयी विपत्तियाँ आने लगीं। कई दिनों तक ऐसी स्थिति बनी रहने पर वे ऊब गयीं। प्रभु-भक्ति के मार्ग में सतत आ रही कठिनाइयों के समाधान के लिए मीराबाई ने संत तुलसीदासजी के पास एक पत्र भेजा। जिसमें लिखा थाः

घर के स्वजन हमारे जेते, सबनि उपाधि बढ़ाई।

साधु संग और भजन करत, मोंहि देत कलेश महाई।….

पत्र के जवाब में संत तुलसीदास जी ने लिखाः

जाके प्रिय न राम-बैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम स्नेही।।…

चाहे कोई हमारा परम स्नेही क्यों न हो, अगर ईश्वर की भक्ति में बाधक बने तो वह करोड़ों वैरियों के समान है। मीराबाई की भक्ति में विघ्नों के चलते आखिर अपनी ससुराल चित्तौड़ को छोड़ना पड़ा।

जिनके द्वारा रचित भजनों को गाकर लोगों की भक्ति बढ़ती है, ऐसी महान भक्तिमती मीराबाई को दुष्टों ने कष्ट देने में कोई कमी नहीं छोड़ी परंतु मीराबाई तो अपने गाये भगवद्-भजनों के रूप में सभी के हृदय में आज भी अमिट स्थान बनाये हुए हैं। भगवद्-भक्ति, भगवद्-ज्ञान देने एवं जनसेवा करने-कराने में रत संतों-महापुरुषों पर अत्याचार करने का सिलसिला बंद नहीं हुआ है, वह तो आज भी चल रहा है। समाज को जागृत होने की आवश्यकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2014, पृष्ठ संख्या 27, अंक 257

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