पूज्यपाद भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज का महानिर्वाण दिवसः 11 नवम्बर 2013
अपनी आत्ममहिमा में जगे महापुरुषों की हस्ती-मस्ती का वर्णन ही नहीं किया जा सकता। आत्मज्ञान की ऊँचाइयों को प्राप्त करने के बाद उनके लिए इस संसार में न कुछ पाना शेष होता है, न कुछ जानना। फिर भी वे करुणासिंधु महापुरुष करूणा करके समाज के बीच रहते हैं, लोगों के पाप-ताप व दुःखों को हरकर उन्हें आत्मज्ञान की सघन, शीतल छाया देते हैं। परहित के लिए वे अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर देते हैं।
जैसे बच्चे की पीड़ा माँ से सहन नहीं होती ऐसे ही लोक-मांगल्य में सदैव रत रहने वाले महापुरुषों से किसी का दुःख सहन नहीं होता। त्रिलोकहितैषी, निष्काम कर्मयोग के मूर्तिमंत स्वरूप भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज ऐसे ही लोकसंत थे। उनके प्रत्येक चेष्टा समष्टि के हित के लिए ही थी। उनकी परोपकारमयी समाजहित की भावना को याद करके बापू जी बताते हैं- “1930-40 की बात है। मेरे गुरु जी उत्तरकाशी में रहते थे। वहाँ राजा ने कच्चा पक्का पुल बनवाया था, बाढ़ आती तो वह पुल बह जाता। बरसात में नदी की उस तरफवाले लोग सड़क की तरफ नहीं आ सकते थे। गाँव कट जाते थे। बरसात बंद हो और फिर सरकारी लोग लगें, बाँस-बल्ली और छोटी-मोटी पुलिया जो लाख-पचास हजार रूपये में बन जाय, वह सरकार बना देती थी।
मेरे गुरु जी के हृदय में दया आयी कि ‘ये गाँव के लोग आटा-दाल, चीज वस्तु लेने को कैसे जायेंगे ? दो-दो महीना उत्तरकाशी से संबंध कट जाता है।’ राजा के पास इतनी सम्पदा नहीं थी कि वह और पुल बना सके। तो साँईं लीलाशाहजी कराची से रिटायर्ड इंजीनियर भक्त को ले आये और बोलेः ‘इधर पुल बनाना है।’ रुपये पैसों से गुरु जी उपराम थे, फिर भी लोक-मांगल्य हेतु आखिर उन्होंने सिंध में बात की कि ‘ऐसा-ऐसा… उत्तरकाशी में हम गर्मियों में जाते हैं, वहाँ साधु संत रहते हैं। छोटी-मोटी बरसात से ही गंगा नदी के तेज बहाव के कारण तीन चार पुलियाँ बह जाती हैं तो लोग बेचारे दुःखी रहते हैं।’ तो लोगों ने खुलकर पैसे दिये। अलग-अलग गाँवों को जोड़ने वाले तीन झूला-पुल (पैदल जाने वालों के लिए) मेरे गुरु जी ने बनवाये। अभी भी वे पुराने पुल हैं।
राजा को जब पता चला कि संत लीलाशाहजी महाराज ने गाँववालों के दुःख को देखकर पुलियाएँ बनवा दीं तो वे दर्शन करने को आये। बोलेः “बाबा ! जो काम राज्य नहीं कर पाया वह आपने किया है। आपके खाने-पीने, सीधे सामान की व्यवस्था हमारे राज्यकोष से होगी। आपने उत्तरकाशी में हमारी प्रजा के लिए 3-3 पुल बनवायें हैं।”
बाबा ने कहाः “हम तो संत आदमी हैं, हमे राज्य के अन्न की जरूरत नहीं है। जहाँ जाते हैं भक्त ले आते हैं। उनका थोड़ा-थोड़ा लेने से उनको पुण्य होता है, संतोष होता है।
तब राजा ने सिर झुकाते हुए कहाः “जैसे गुरूनानक शाह थे, ऐसे आप भी लीलाशाह हो। आपकी गढ़वाल रियासत के प्रति जो सेवा है, उसके लिए मैं नतमस्तक होकर आपका अभिवादन करता हूँ।”
जो कार्य वहाँ का राजा करने में अपने को असमर्थ महसूस करता था, वह कार्य साँईं श्री ने सहज में ही सम्पन्न कर लोगों की पीड़ा व कठिनाइयों को हर लिया। लोगों के सच्चे हितैषी, सच्चे मार्गदर्शक व उनके दुःखों और कष्टों को समझने व हरने वाले ऐसे सच्चे संतों के प्रति सम्पूर्ण मानव-जाति सदैव ऋणी रहेगी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2013, पृष्ठ संख्या 23, अंक 250
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