जिस समय इस देश में आद्य शंकराचार्य जी का आविर्भाव हुआ था उस समय असामाजिक तत्त्व अनीति, शोषण, भ्रम तथा अनाचार के द्वारा समाज को गलत दिशा में ले जा रहे थे। समाज में फैली इस अव्यवस्था को देखकर बालक शंकर का हृदय काँप उठा। उसने प्रतिज्ञा की कि “मैं राष्ट्र के धर्मोद्धार के लिए अपने सुख की तिलांजलि देता हूँ। अपने श्रम और ज्ञान की शक्ति से राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत करूँगा। चाहे उसके लिए मुझे सारा जीवन साधना में लगाना पड़े, घर छोड़ना पड़े अथवा घोर से घोर कष्ट सहने पड़ें, मैं सदैव तैयार रहूँगा।”
बालक शंकर माँ से आज्ञा लेकर चल पड़े अपने संकल्प को साधने। उन्होंने सदगुरु स्वामी गोविन्दपादाचार्य जी से दीक्षा ली। इसके बाद वे साधना एवं वेद शास्त्रों के गहन अध्ययन से अनपे ज्ञान को परिपक्व कर बालक शंकर से जगदगुरु आद्य शंकराचार्य बन गये। शंकराचार्य जी अपने गुरुदेव से आशीर्वाद प्राप्त कर देश में वेदान्त का प्रचार करने चल पड़े। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसों को भी दुष्टों के उत्पीड़न सहने पड़े तो आचार्य उससे कैसे बच पाते ? शंकराचार्य जी के धर्मकार्य में विधर्मी हर प्रकार से रूकावट डालने का प्रयास करने लगे, कई बार उन पर मर्मांतक प्रहार भी किये गये।
कपटवेशधारी उग्रभैरव नामक एक दुष्ट व्यक्ति ने आचार्य की हत्या के लिए शिष्यत्व ग्रहण किया। आचार्य को मारने की साजिश विफल हुई और अंततः वह भगवान नृसिंह के प्रवेश अवतार द्वारा मारा गया।
कर्नाटक में बसने वाली कापालिक जाति का मुखिया था क्रकच। वह मांस-शराब आदि अनेक दुराचारों से लिप्त था। कर्नाटक की जनता उसके अत्याचारों से ग्रस्त थी। आचार्य शंकर के दर्शन, सत्संग एवं सान्निध्य के प्रभाव से लोग कापालिकों द्वारा प्रसारित दुर्गुणों को छोड़ने लगे और शुद्ध सात्त्विक जीवन की ओर आकृष्ट होने लगे। सैंकड़ों कापालिक भी मांस-शराब को छोड़कर शंकराचार्य जी के शिष्य बन गये। इस पर क्रकच घबराया। उसने शंकराचार्य जी का अपमान किया, गालियाँ दीं और वहाँ से भाग जाने को कहा। शंकराचार्य जी ने उसके विरोध की कोई परवाह नहीं की और अपनी संस्कृति का, अपने धर्म का प्रचार-प्रसार निष्ठापूर्वक करते रहे। इस पर क्रकच ने उन्हें मार डालने की धमकी दी। उसने बहुत से दुष्ट शिष्यों को शराब पिलाकर शंकराचार्य जी को मारने हेतु भेजा। धर्मनिष्ठ राजा सुधन्वा को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने अपनी सेना को भेजा और युद्ध में सारे कापालिकों को मार गिराया।
अभिनव गुप्त भी एक ऐसा ही महामूर्ख था जो आचार्य के लोक जागरण के कार्यों को बंद कराना चाहता था। वह भी अपने शिष्योंसहित आचार्य से पराजित हुआ। वह दुराभिमानी, प्रतिक्रियावादी, ईर्ष्यालु स्वभाव का था। कपट भाव से वह शिष्यों सहित शंकराचार्य जी का शिष्य बन गया। आचार्य के प्रति षड्यंत्र करने लगा। दैवयोग से उसे भगंदर का रोग हो गया और कुछ ही दिनों में उसकी मृत्यु हो गयी।
इस संसार में ईर्ष्या और द्वेषवश जिसने में भी महापुरुषों का अनिष्ट करना चाहा, देर सवेर दैवी विधान से उन्हीं का अनिष्ट हो जाता है। संतों महापुरुषों की निंदा करना, उनके दैवी कार्य में विघ्न डालना यानी खुद ही अपने अनिष्ट को आमंत्रित करना है। उग्रभैरव, क्रकच व अभिनव गुप्त का जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
श्री र. न. ठाकुर
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2014, पृष्ठ संख्या 6, अंक 257
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