विजयनगर के प्रजावत्सल सम्राट थे कृष्णदेव राय। वे अपनी प्रजा के सुख-दुःख देखने के लिए अक्सर राज्य में भ्रमण करने के लिए जाते थे। एक बार इसी हेतु से वे अपने बुद्धिमान मंत्री तेनालीराम तथा कुछ सिपाहियों के साथ निकले। एक-एक गाँव देखते-देखते दूर निकल गये। शाम हो गयी। सभी थक गये। नदी किनारे उचित जगह देखकर महाराज ने कहाः ‘तेनालीराम ! यहीं पड़ाव डाल दो।”
विश्राम के लिए तम्बू लग गये। सभी भूख-प्यास से बेहाल थे। आसपास नजर दौड़ाने पर महाराज को थोड़ी दूर मटर की फलियों से लदा खेत दिखा। महाराज ने कुछ सिपाहियों को बुलाकर कहाः “जाओ सामने के खेत में से फलियाँ तोड़कर हम दोनों के लिए लाओ और तुम भी खाओ।”
सिपाही जैसे जाने के लिए पीछे मुड़े तो तेनालीराम ने कहाः “महाराज ! इस खेत का मालिक तो यह वह किसान है जिसने इस खेत में फसल लगायी और इसे अपने पसीने से सींचा है। आप इस राज्य के राजा अवश्य हैं पर खेत के मालिक नहीं। बिना उसकी आज्ञा के इस खेत की एक भी फली तोड़ना अपराध है, राजधर्म के विरूद्ध आचरण है, जो एक राजा को कदापि शोभा नहीं देता।”
महाराज को तेनालीराम की बात उचित लगी, सिपाहियों को आदेश दियाः “जाओ, इस खेत के मालिक से फलियाँ तोड़ने की अनुमति लेकर आओ।”
सिपाहियों को खेत में देख खेत का मालिक घबरा गया। सिपाहियों ने कहाः “महाराज स्वयं तुम्हारे खेत के नजदीक विश्राम कर रहे हैं और अपनी भूख मिटाने के लिए खेत से थोड़ी सी फलियाँ तोड़ने की अनुमति चाहते हैं।” यह सुन उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा ! प्रसन्नता और राजा के प्रति अहोभाव से उसका हृदय भर गया। वह दौड़ा-दौड़ा महाराज के पास पहुँचा।
राजा को प्रणाम किया और कहाः “महाराज ! यह राज्य आपका है, यह खेत आपका। आप प्रजापालक हैं, मैं आपकी प्रजा हूँ। मुझसे अनुमति लेने की आपको कोई आवश्यकता थी फिर भी आपने एक गरीब किसान के अधिकार को इतना महत्व दिया ! आप धन्य हैं !”
किसान खुद सिपाहियों के साथ खेत में गया और फलियाँ तोड़कर महाराज के सामने प्रस्तुत कीं, फिर आज्ञा लेकर गाँव गया।
थोड़ी देर बाद वह वापस आया। उसके साथ गाँव के कुछ लोग और भी थे जो अपने साथ सभी के लिए तरह-तरह की भोजन-सामग्री लाये। इतना अपनापन, प्रेम व सम्मान पाकर महाराज बड़े प्रसन्न हुए।
बुद्धिमान तेनालीराम मुस्कराकर बोलेः “जब हम अपने अहं को न पोसकर दूसरें के अधिकारों का ख्याल रखते हैं तो लोग भी हमारा ख्याल रखते हैं, उनके दिल में हमारे लिए आदर और प्यार बढ़ जाता है और वास्तविक आदरणीय, सर्वोपरि, सर्वेश्वर परमात्मा भी भीतर से प्रसन्न होते हैं।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2014, पृष्ठ संख्या 18, अंक 260
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