श्री बी. एम. गुप्ता, वरिष्ठ अधिवक्ता
पुलिस को अधिकार दिये गये हैं, पुलिस उनका उपयोग भी कर सकती है, दुरुपयोग भी कर सकती है। अगर कोई भी शिकायत किसी अच्छे आदमी के खिलाफ दाखिल होती है तो पहले पुलिस को जाँच करनी चाहिए कि क्या यह आरोप सही है ? बिना किसी जाँच के पुलिस आदमी को उठा लेती है, यह कानून नहीं है।
आरोपकर्ता तथाकथित घटना जोधपुर की बताते हैं। जोधपुर से लड़की अपने गाँव (शाहजहाँपुर, उ.प्र.) जाती है, 2-3 दिन के बाद दिल्ली आती है और वहाँ सारा प्लान तैयार होता है। दिल्ली के कमला मार्केट थाने में 5 दिन बाद फरियाद दाखिल होती है। लेट होने का क्या कारण है ? पुलिस का फर्ज है जाँच करना लेकिन एक बार शिकायत दर्ज हो गयी तो चलो उठा लो, चाहे कोई भी हो, यह कानून नहीं कहता है। सर्वोच्च न्यायालय ने निरंजन सिंह केस के फैसले में यह कहा है कि पुलिस को गिरफ्तार करने के अधिकार हैं लेकिन उनके उपयोग का ठोस कारण चाहिए, अभियुक्त के खिलाफ तथ्यात्मक सबूत चाहिए। 12 साल बाद सूरत में एफआईआर दर्ज होती है। आज तक मैंने यह नहीं देखा-सुना कि 12 साल के बाद कोई अपराध दर्ज हो। सूरत के पुलिस कमिश्नर राकेश अस्थाना ने क्यों नहीं कहा कि ‘यह अहमदाबाद पुलिस स्टेशन की शिकायत है। जाओ, मैं फोन करता हूँ, वहाँ फरियाद लिखवाओ।‘
नारायण साँईं और आश्रम के खिलाफ गलत प्रचार करने के लिए इन्होंने दूसरे ग्राउंडस (आधार) खड़े किये हैं। पहला, न्यायाधीशों को रिश्वत देने का प्रयास किया। क्या किसी न्यायाधीश ने यह कहा है कि ‘हाँ, हमारे को प्रस्ताव दिया गया था ?’ दूसरा, डॉक्टरों को पैसे खिलाने का। 12 साल के बाद रेप का कोई सबूत महिला पर या पुरुष के पास से मिलेगा ? डॉक्टरों को कोई रिश्वत क्यों देगा ! उसके सबूत क्या हैं ? कहा गया कि इकबाल नाम के आदमी को डॉक्टरों को प्रस्ताव रखने के लिए माध्यम बनाया गया। उसका बयान जब पुलिस ने लिया तो उसने कहा कि “मैंने किसी डॉक्टर से बात नहीं की।” सूरत हॉस्पिटल के एक पुरुष नर्स का बयान पुलिस लेती है, वह भी कहता है कि “मैंने किसी से सिफारिश नहीं की।” तो डॉक्टरों को रिश्वत का कारण कहाँ से खड़ा हुआ ?
तीसरा कारण जेल में जेलरों को रिश्वत देने की बात है, जिससे साँईंजी को ज्यादा सुविधा मिले। मानवाधिकार आयोग ने कैदियों को इतनी सारी सुविधाएँ दी हैं कि उनको एक रूपया किसी को देने की जरूरत नहीं पड़ती। ये सभी बोगस कारण खड़े करके एक ‘प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट’ का केस खड़ा किया।
इसके अलावा पुलिस साइंटिफिक इन्वेस्टिगेशन (वैज्ञानिक जाँच) क्यों नहीं करती ? फुट प्रिंट, फिंगर प्रिंट, एक्स रे, विडियोग्राफी ये सब चीजें क्यों नहीं पुलिस उपयोग में लेती ? क्योंकि इनमें पुलिस गलत नहीं कर सकती। गवाह खड़े करना कोई बड़ी बात नहीं है ! आज हर इन्सान के शत-प्रतिशत लोग हितेच्छु नहीं होते, करोड़ों लोगों में 10-20 भी अगर विरोधी हैं और गवाह बन गये तो क्या करोड़ों लोग गलत हैं ?
5-5, 10-10 साल आदमी जेल में पड़ा रहने के बाद जब वह निर्दोष छूट जाये तो उसके परिवार का 10 साल में क्या हुआ – यह कभी किसी ने सोचा ? जनता में जागृति की जरूरत है। केशवानंद जी की मेडिकल रिपोर्ट में उन्हें क्लीन चिट मिल चुकी थी फिर भी 7 साल जेल में रहे और 7 साल बाद उनकी अपील की सुनवाई हुई और उनको निर्दोष मुक्त कर दिया गया। तो ये 7 साल जो केशवानंद जी के जेल में गये, उसका जिम्मेदार कौन है ? षडयन्त्रकारी क्या मुआवजा देंगे ?
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 7, अंक 263
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