महात्मा गाँधी
शिक्षकों का प्रेम मैं विद्यालयों में हमेशा ही पा सका था। अपने आचरण के विषय में बहुत सजग था। आचरण में दोष आने पर मुझे रोना ही आ जाता था। मेरे हाथों कोई भी ऐसा काम, जिससे शिक्षकों को मुझे डाँटना पड़े अथवा शिक्षकों का वैसा ख्याल बने तो वह मेरे लिए असह्य हो जाता था।
संस्कृत विषय चौथी कक्षा में शुरु हुआ था। विद्यार्थी आपस में बातें करते कि ‘फारती बहुत आसान है।’ मैं भी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी के वर्ग में जाकर बैठा। संस्कृत के शिक्षक को दुःख हुआ। उन्होंने मुझे बुलाया और कहाः “यह तो समझ कि तू किनका लड़का है ! क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा ? तुझे जो कठिनाई हो वह मुझे बता। मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूँ। आगे चलकर उसमें रस के घूँट पीने को मिलेंगे। तुझे यों ही हारना नहीं चाहिए। तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ।”
मैं शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर सका। आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर का उपकार मानती है क्योंकि जितनी संस्कृत मैंने उस समय सीखी, उतनी भी न सीखी होती तो आज संस्कृत शास्त्रों में मैं जितना रस ले सकता हूँ, उतना ने ले पाता। मुझे तो इस बात का पश्चात्तपा होता है कि मैं अधिक संस्कृत न सीख सका। क्योंकि (काफी) बाद से मैं समझा कि किसी भी हिन्दू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किये बिना रहना ही न चाहिए।
भाषा पद्धतिपूर्वक सिखायी जाय और सब विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से सीखने-सोचने का बोझ हम पर न हो तो भाषाएँ सीखना बोझरूप न होगा बल्कि उसमें बहुत ही आनन्द आयेगा। असल में तो हिन्दी, गुजराती, संस्कृत एक भाषा मानी जा सकती हैं।
माँ के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं और जो मीठे शब्द सुनाई देते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा लेने से छूट जाता है। राष्ट्रीयता टिकाये रखने के लिए किसी भी देश के बच्चों को नीची या ऊँची, सारी शिक्षा उनकी मातृभाषा के जरिये ही मिलनी चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2015, पृष्ठ संख्या 20, अंक 265
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