फिर भी सौदा सस्ता है

फिर भी सौदा सस्ता है


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

बोलते हैं कि काशी में मरो तो मुक्ति होती है, मंदिर में जाओ तो भगवान मिलेंगे, तो कबीर जी ने कह दियाः

पाहन पूजें हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार।

किसी की भी बात मान लें ऐसे में से कबीर जी नहीं थे। वे पूरे जानकार थे। मिश्री-मिश्री कहने से मुँह मीठा नहीं होता, ऐसे ही राम-राम करने से राम नहीं दिखते। राम के लिए प्रेम होगा तब रामनाम जपने से वास्तविक लाभ होता है। कबीर जी ऐसे दृढ़ थे कि असत्य अथवा पंथ-सम्प्रदाय को नहीं मानते थे। वे ही कबीर जी बोलते हैं-

यह तन विष की बेल री….

यह तन विष की बेल है। पृथ्वी का अमृत अर्थात् गौ का दूध पियो, पवित्र गंगाजल पियो, पेशाब हो जायेगा, कितना भी पवित्र व्यंजन खाओ, सोने के बर्तनों में खाओ, विष्ठा हो जायेगा। खाकर उलटी करो तो भी गंदा और हजम हो गया तो भी मल-मूत्र हो जायेगा। हजम नहीं हुआ तो अम्लपित्त (एसिडिटी) की तकलीफ करेगा।

मिठाई की दुकान पर कल तक जो मिठाइयाँ रखी हुई थीं, जिन्हें अगरबत्तियाँ दिखाई जा रही थीं उन्हीं को खाया तो सुबह उस माल का क्या हाल होता है, समझ जाओ बस !

शरीर क्या है ? जिसको ʹमैंʹ मानते हो यह तो विष बनाने का, मल-मूत्र बनाने का कारखाना है। इसे जो भी बढ़िया-बढ़िया खिलाओ वह सब घटिया हो जाता है।

यह शरीर अपवित्र है। वस्त्र पहने तो वस्त्र अशुद्ध हुए। सोकर उठे तो मुँह अशुद्ध हो गया, बदबू आने लगी। आँखों से, नाक से गंदगी निकलती है, कान से गंदगी निकलती है और नीचे की दोनों इन्द्रियों से तो क्या निकलता है समझ लो….! तौबा है साँई, तौबा ! तुममें भरा क्या है जो खुद को कुछ समझ रहे हो ? यह तो भगवान की कृपा है कि ऊपर चमड़ा चढ़ा दिया। चमड़ा उतारकर जरा देखो तो हाय-हाय ! बख्श गुनाह ! तौबा साँई, तौबा ! ऐसा तो अंदर भरा है।

यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान।

ऐसा नापाक, अशुद्ध शरीर ! इस अशुद्ध शरीर में भी कोई सदगुरु मिल जायें तो शुद्ध में शुद्ध आत्मा का ज्ञान करा देते हैं, परमात्मा का दीदार करा देते हैं। जो आत्मसाक्षात्कारी पुरुष हैं वे अमृत की खान होते हैं। आत्मसाक्षात्कार होता है तब हृदय परमात्मा के अनुभव से पावन होता है। वह हृदय जिस शरीर में है उसके चरण जहाँ पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है। वे पुरुष तीर्थ आदि पवित्र करने वालों को भी पवित्र कर देते हैं। फिर उनके शरीर को जो मिट्टी छू लेती है वह भी दूसरों का भाग्य बना देती है।

यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान।

सीस दिये सदगुरु मिलें, तो भी सस्ता जान।।

….तो यह शरीर विष की बेल के समान है और सदगुरु अमृत के समान। सिर देकर भी यदि सदगुरु मिलते हों तो भी सौदा सस्ता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या 23

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