दिल्ली उच्च न्यायालय
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा हैः “मीडिया में दिखायी गयी खबरें न्यायाधीश के फैसलों पर असर डालती हैं। खबरों से न्यायाधीश पर दबाव बनता है और फैसलों का रुख भी बदल जाता है। पहले मीडिया अदालत में विचाराधीन मामलों में नैतिक जिम्मेदारियों को समझते हुए खबरें नहीं दिखाता था लेकिन अब नैतिकता को हवा में उड़ा दिया गया है। मीडिया ट्रायल के जरिये दबाव बनाना न्यायाधीशों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति है। जाने-अनजाने में एक दबाव बनता है और इसका असर आरोपियों और दोषियों की सज़ा पर पड़ता है।”
कई न्यायविद् एवं प्रसिद्ध हस्तियाँ भी मीडिया ट्रायल को न्याय व्यवस्था के लिए बाधक मानती हैं। एक याचिका की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरीयन जोसेफ ने कहा हैः “दंड विधान संहिता की धारा 161 और 164 के तहत दर्ज आरोपी के बयान भी मीडिया को जारी कर दिये जाते हैं। अदालत में मुकद्दमा चलता है, उधर समानांतर मीडिया ट्रायल भी चलता रहता है।” सर्वोच्च न्यायालय ने कहा हैः “मीडिया का रोल अहम है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह इस तरह अपना काम करे कि किसी भी केस की छानबीन प्रभावित न हो। कानून की नजर में कोई शख्स तब तक अपराधी नहीं है, जब तक उस पर जुर्म साबित न हो जाय। ऐसे में जब मामला अदालत में हो, तब मीडिया को संयम रखना चाहिए। उसे न्यायिक प्रक्रिया में दखल देने से बचना चाहिए।”
उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर कहते हैं- “मीडिया ट्रायल काफी चिन्ता का विषय है। यह नहीं होना चाहिए। इससे अभियुक्त के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की धारणा बनती है। फैसला अदालत में ही होना चाहिए।”
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन् का मानना हैः “मीडिया ट्रायल अच्छा नहीं है क्योंकि कई बार इससे दृढ़ सार्वजनिक राय कायम हो जाती है जो न्यायपालिका को प्रभावित करती है। मीडिया ट्रायल के कारण की बार आरोपी की निष्पक्ष सुनवाई नहीं हो पाती।”
पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता रविशंकर सिंह बताते हैं- “कई देशों में मीडिया ट्रायल के खिलाफ बड़े सख्त कानून बनाये गये हैं। इंगलैण्ड में कंटेम्प्ट हो कोर्ट एक्ट 1981 की धारा 1 से 7 में मीडिया ट्रायल के बारे में सख्त निर्देश दिये गये हैं। कई बार इस कानून के तहत बड़े अखबारों पर मुकद्दमे भी चलाये गये हैं। धारा 2(2) के तहत प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया ऐसा कोई समाचार प्रकाशित नहीं कर सकता जिसके कारण ट्रायल की निष्पक्षता पर गम्भीर खतरा उत्पन्न होता हो। जिस तरह भारत में मीडिया ट्रायल के द्वारा केस को गलत दिशा में मोड़ने का प्रचलन हो रहा है, ऐसे में अन्य देशों की तरह भारत में भी मीडिया ट्रायल पर सख्त कानून बनाना बहुत ही आवश्यक हो गया है।”
विश्व हिन्दू परिषद के मुख्य संरक्षक व पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल जी कहते हैं- “मीडिया ट्रायल के पीछे कौन है ? हिन्दू धर्म व संस्कृति को नष्ट करने के लिए मीडिया ट्रायल पश्चिम का बड़ा भारी षड्यंत्र है हमारे देश के भीतर ! मीडिया का उपयोग कर रहे हैं विदेश के लोग! उसके लिए भारी मात्रा में फंड्स देते हैं, जिससे हिन्दू धर्म के खिलाफ देश के भीतर वातावरण पैदा हो।”
मीडिया विश्लेषक उत्पल कलाल कहते हैं- “यह बात सच है कि संतों, राष्ट्रहित में लगी हस्तियों पर झूठे आरोप लगाकर मीडिया ट्रायल द्वारा देशवासियों की आस्था के साथ खिलवाड़ करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जनता पर अपनी बात को थोपना, सही को गलत, गलत को सही दिखाना – क्या इससे प्रजातंत्र को मजबूती मिलेगी ? मीडिया की ऐसी रिपोर्टिंग पर सरकार न्यायपालिका और जनता द्वारा लगाम कसी जानी चाहिए।
संकलकः श्री रवीश राय
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 6,7, अंक 268
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