शिवजी बने ज्योतिषी….

शिवजी बने ज्योतिषी….


भगवान शंकर ने पार्वती जी को एक प्रसंग सुनाते हुए कहाः

जब भगवान श्रीराम का प्राकट्य हुआ था, तब मैं और काकभुशुंडिजी उनके दर्शन के लिए अयोध्या गये, किंतु अयोध्या की भीड़भाड़ में हम उनके महल तक न जा पाये। मैंने सोचा कि अब कोई युक्ति आजमानी पड़ेगी ताकि हमें प्रभु के दर्शन हों।

तब मैंने एक ज्योतिषी का और काकभुशुंडिजी ने मेरे शिष्य का रूप लिया। वे शिष्य की तरह मेरे पीछे-पीछे चलने लगे। मैंने मन-ही-मन श्रीराम जी से प्रार्थना की कि ‘हे प्रभु ! अब आप ही दर्शन का कोई सुयोग बनाइये।’

उधर राजमहल में श्रीरामजी लीला करके बहुत रोने लगे। कौशल्या दशरथ आदि सब बड़े चिंतित हो उठे। कई वैद्यों को बुलाया गया लेकिन श्रीराम जी का रुदन बंद ही न हुआ। दशरथ ने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि ‘अगर ऐसे कोई संत-महात्मा या ज्योतिषी मिल जायें जो श्रीराम जी का रुदन बंद करवा सकें तो तुरंत उन्हें राजमहल में आदरसहित ले आयें।

यह बात हम तक भी पहुँची। हमने कहाः

“हम अभी-अभी हिमालय से आ रहे हैं और ज्योतिष विद्या भी जानते हैं। बच्चे को चुप कराना तो हमारे बायें हाथ का खेल है।”

लोग हमें बड़े आदर से राजमहल तक ले गये। मैंने कहाः “बालक को मेरे सामने लायें। मेरे पास ऐसी सिद्धि है कि मेरी नज़र पड़ते ही वह चुप हो जायेगा।

श्रीराम जी को लाया गया। मैंने उन्हें देखा तो वे चुप हो गये, किंतु मैं रोने लगा। कौशल्या माँ को मेरे प्रति सहज स्नेह जाग उठा कि कितने अच्छे महाराज हैं, मेरे बालक का रुदन खुद ले लिया ! वे मुझे भेंट पूजा देने लगीं।

मैंने कहाः “भेंट पूजा तो फिर देखी जायेगी, मैं ज्योतिषी भी हूँ। पहले तुम्हारे लाला का हाथ तो देख लूँ।”

कौशल्या माँ ने अपना बालक मुझे दे दिया। मैंने उन परात्पर ब्रह्म को अपने हाथों में लिया। काकभुशुंडिजी ने मुझे इशारा किया कि देखना, प्रभु ! कहीं मैं न रह जाऊँ।’

मैंने उनसे कहाः “श्रीचरण तो तुम्हारी ही ओर हैं।”

फिर मैंने श्रीरामजी के चरण छुए और रेखाएँ देखते हुए कहाः

“यह बालक आपके घर में नहीं रहेगा।”

कौशल्या  जी घबरा गयीं और बोलीं-

“क्या हमेशा के लिए घर छोड़कर चला जायेगा ?”

मैंने कहाः “नहीं, गुरुदेव के साथ जायेगा तो सही, लेकिन थोड़े ही दिनों में, पृथ्वी पर कहीं न मिले ऐसी राजकुमारी के साथ शादी करके वापस आ जायेगा।”

कौशल्याजी बड़ी प्रसन्न हुईं और हमें दक्षिणा में बहुत-सी भेंट पूजा देने लगीं। हमें तो करने थे दर्शन, इसीलिए हमने ज्योतिषी की लीला की थी। जब स्वांग रचा ही था तो उसे निभाना भी था, अतः हम दक्षिणा लेकर लौट पड़े।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 23 अंक 119

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *