‘योगवासिष्ठ महारामायण’ में वसिष्ठजी कहते हैं- “हे राम जी ! जितने दान और तीर्थादिक साधन हैं उनसे आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती।”
पूज्य बापू जीः “दान से धन शुद्ध होगा, तीर्थों से चित्त की शुद्धि होगी परंतु आत्मशांति, आत्मानंद सदगुरु के दर्शन-सत्संग से होगा। इसलिए बोलते हैं-
तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।
पढ़-लिखकर भाषण करना अथवा पुजवाना अलग बात है और परमात्मा को पाकर परमात्मा का रस बाँटना यह श्रीराम जैसे, श्रीकृष्ण जैसे, कबीर जी, नानकजी, साँईं श्री लीलाशाहजी बापू जैसे महापुरुषों का स्वभाव है।
जो अपने गुरु के नियंत्रण में नहीं रहता, उसका मन परमानंद को नहीं पायेगा। ऐसा नहीं कि गुरु जी के सामने कोई बैठे रहना है। गुरु जी नैनीताल में हैं या चाहे कहीं भी सत्संग कर रहे हैं लेकिन गुरुजी के नियंत्रण में अपने को रखकर हम सात साल रहे। कभी कहीं जाते तो गुरु जी की अनुमति लेकर जाते। चौरासी लाख जन्मों की मन की, इन्द्रियों की वासना से जीव भटकता रहता है, इसलिए गुरु की जरूरत पड़ी। गुरु एक ऐसा सहारा मिल गया कि अब कहीं भी जाओ तो गुरु जी की अनुमति लेंगे। तो अनुमति लेना ठीक है कि नहीं ? जैसा मन में आये वैसा करने लगे तो एक जन्म में क्या, दस जन्म में भी उद्धार होने वाला नहीं है।
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
गुरुओं का सान्निध्य और गुरु की आज्ञा का पालन हमें गुरु बना देता है। गुरु वे हैं जो लघु को गुरु बना दें, विषय विकारों में गिरे हुए जीवों को भगवद्-आनंद में, भगवद्-रस में, भगवत्प्रीति में पहुँचा दें। अतः जब गुरु आते हैं तो सुधरने का मौसम होता है और गुरु चले जायें तब सावधान होने का मौसम होता है कि हम बिगड़े नहीं। जितना सुधरे हैं उतना सुधरे रहें फिर आगे बढ़ें।”
वसिष्ठ जी बोलेः “हे राम जी ! जहाँ शस्त्र चलते हैं और अग्नि लगती है, वहाँ भी सूरमा निर्भय होकर जा पड़ते हैं और शत्रु को मारते हैं। प्राण जाने का भय नहीं रखते तो तुमको संसार की इच्छा त्यागने में क्या भय होता है ?”
पूज्य बापू जीः “लड़ाइयाँ हो रही हैं, वहाँ भी सूरमे लड़ते हैं। आग लग रही है, अग्निशामक दल वाले वहाँ जाकर कूद पड़ते हैं। कोई मर भी जाते हैं। प्राण त्यागने में इतनी बहादुरी करते हैं तो तुमको केवल वासना त्यागनी है और क्या करना है ? मनमुखता त्यागनी है और क्या करना है ? कोई मेहनत है क्या ? लेकिन मनमुखता पुरानी है, कई जन्मों की है और अभी भी उसमें महत्त्व है। भगवान को पाने का महत्त्व नहीं है। रामायण में शिवजी कहते हैं-
सुनहु उमा ते लोग अभागी।
हरि तजि होहिं विषय अनुरागी।।
जो हरि का रस छोड़कर विषय-विकारों से संतुष्ट हो रहे हैं, वे बड़े अभागे हैं। शरीर की ममता त्यागें, आत्म-परमात्म सुख में जागें।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 23, अंक 268
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