मानव जाति के परम हितैषी सदगुरु

Rishi Prasad 270 Jun 2015

मानव जाति के परम हितैषी सदगुरु


भारत में ब्रिटिश शासन था उस समय की एक घटना है। न्यायालय ने किसी को फाँसी की सज़ा दी। अब उसको फाँसी लगनी है शाम को 5 बजे तो ज्यूरी में जो न्यायाधीश बैठे थे, उनमें एक बंगाली न्यायाधीश ते। उन्होंने किसी गुरु के सम्पर्क में सात्विक साधना, सात्विक व्यवहार किया होगा। उस मुजरिम को देख के वे बोलेः “इसने तो सचमुच में बड़े आदमी की हत्या की नहीं है, यह अपराधी नहीं है।”
दूसरा न्यायाधीश बोलाः “सत्र न्यायालय ने, उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी रहम की अर्जी ठुकरा दी है, 5 बजे इसको फाँसी लगे तब तक अपने को खाली यहाँ बैठना है।”
“नहीं, मैं इसको फाँसी नहीं देने दूँगा।”
न्यायाधीश-न्यायाधीश का आपस में वाक् युद्ध हो गया तो पाँच के बदले पौने छः बज गये। इतने में ब्रिटिश शासन का तार आया कि ‘ऐसा ही आदमी यूरोप में पकड़ा गया है, इस आदमी को फाँसी न लगे। तार पहुँचने में देर हुई।’
उन बंगाली न्यायाधीश ने कहाः “अगर इनको फाँसी दे देते तो पूरा ब्रिटिश शासन मिलकर इसको जिंदा नहीं कर सकता था। जिस परमात्मा ने इसको जीवनदान दिलाने की मुझे प्रेरणा दी, मैं उसी को देखूँगा।” और उन्होंने त्यागपत्र लिखकर मुख्य न्यायाधीश को दिया।
मुख्य न्यायाधीश ने कहाः “नहीं, आपका अंतरात्मा इतना शुद्ध है कि आपको प्रेरणा हो गयी कि इसने हत्या नहीं की और आपने इसको बचा लिया। आपकी पदोन्नति करेंगे।”
“पदोन्नति करेंगे तब भी मैं नौकर रहूँगा न ! गुलाम… मनुष्य का गुलाम !! नहीं, मैं तो उस भगवान को जानूँगा जिसने मेरे को प्रेरणा दी कि यह निर्दोष है।”
उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। अब वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इधर-उधर घूमे लेकिन उनके मन में संतोष नहीं हुआ तो हरिद्वार गये। बुद्धिमान थे, उधर भी उनको कोई ऐसे गुरु नहीं मिले जहाँ उनका सिर झुके तो उनको अपने शरीर पर बड़ी ग्लानि हुई कि ‘हाय ! मैं निगुरा होकर जिंदगी बरबाद कर रहा हूँ। मेरे को गुरु भी नहीं मिलते। गुरु के बिना जीना तो व्यर्थ है !….’
एक रात को वे अपनी कमर में पत्थर बाँध के ऋषिकेश में, जहाँ अभी काली कमली वाले बाबा का घाट है, वहाँ आत्महत्या करने को तैयार हो गये। वे ‘गंगे हर !’ करके कूदने वाले थे, इतने में एक सिद्ध गुरु प्रकट हुए और हाथ पकड़कर बोलेः “ऐ मूर्ख ! रुक जा ! अहं नहीं छोड़ता है और शरीर छोड़ता है ! आत्महत्या करने को तैयार है ! जाओ मैं तुम्हारा गुरु हूँ। ‘नारायण, नारायण…’ मंत्र जपो !”
ऐसा बोल के वे सिद्ध गुरु अंतर्ध्यान हो गये। फिर वे न्यायाधीश बड़ौदा के पास चाणोद करनाली है, वहाँ आये। नर्मदा के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ के जो गुरुमंत्र मिला था- नारायण नारायण…. अर्थात् नर-नारी का चैतन्य अयन, उसका जप करते थे, मौन रखते थे। एक बार जप की 12 करोड़ संख्या पूरी हो गयी तो साकार चतुर्भुजी भगवान नारायण प्रकट हुए। इससे उनका प्रभाव तेज बढ़ गया।
वे ‘नारायण-नारायण…’ जपते थे तो लोग उनको नारायण स्वामी बोलने लगे। 24 घंटे में एक बार वे चाणोद गाँव में भिक्षा लेने जाते। जो कुछ मिलता वह सब कपड़े में डाल के नदी में उसका स्वाद नर्मदा जी को दे देते। खारा-खट्टा, तीखा-मीठा नहीं, बस पेट को खुराक देते और जप करते थे। जिनके यहाँ भोजन लेते थे, उनको बड़ी खुशी होती थी कि इतने बड़े तपस्वी संत हमारे यहाँ भोजन लेने आते हैं ! तो सब लोग बोलते, ‘हमारे यहाँ, हमारे यहाँ….।’
उन्होंने कहाः “जो जप-कीर्तन करेगा, नहा-धो के भोजन बनायेगा और फिर मेरे पास आयेगा, मैं उसके घर का लूँगा।” इस प्रकार सबने तारीख बाँध दी तो 2-4 महीने में एक परिवार का नम्बर लगता था। फिर लोग आग्रह करने लगे, ‘जरा नाश्ता कर लो, हमारा तो नम्बर नहीं लगा….’ इससे उनको उबान हो गयी और वे बद्रीनाथ चले गये। कुछ दिन एकाँत में शांति से रहे लेकिन वहाँ भी कोई चाणोद करनाली वाले यात्रा करने गये तो पहचान लिया। वे लोग बोलेः “हम यहाँ तीर्थयात्रा के लिए आये हैं, आपके लिए भोजन हम बनायेंगे।”
“तुम भोजन बनाओ और बद्रीनाथ मंदिर के भगवान को भोग लगाओ। भगवान उसमें से सचमुच खायेंगे तो ही मैं खाऊँगा, नहीं तो नहीं खाऊँगा।” – ऐसी शर्त डाल दी कि सब लोग परेशान न करें।
भोजन बना और बद्रीनाथ को भोग लगाया लेकिन भगवान ने नहीं खाया। फिर नहा-धो के और हक की कमाई वाले भक्तों के पैसों से दूसरे दिन भोग लगा तो दिखा कि सचमुच में भगवान ने उसमें से भोजन लिया हुआ है।
तो उन बंगाली न्यायाधीश का नाम पड़ गया नारायण स्वामी। अभी तो उनका शरीर भगवान में लीन हो गया। 1960-62 में उनके उपदेश की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 270
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