निरावरण तत्त्व की महिमा

निरावरण तत्त्व की महिमा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

तत्त्वदृष्टि से जीव और ईश्वर एक है, फिर भी भिन्नता दिखती है। क्यों ? क्योंकि जब शुद्ध चैतन्य में स्फुरण हुआ तब अपने स्वरूप को भूलकर जो स्फुरण के साथ एक हो गया, वह जीव हो गया परन्तु स्फुरण होते हुए भी जो अपने स्वरूप को नहीं भूले, अपने को स्फुरण से अलग जानकर अपने स्वभाव में डटे रहे, वे ईश्वर कोटि के हो गये। जैसे, जगदम्बा हैं, श्रीराम हैं, शिवजी हैं।

अब प्रश्न उठता है कि स्फुरण के साथ अपने को एक मान लेने वाले कैसे जीता है ? जैसे किसी आदमी ने थोड़ी-सी दारू पी है, लेकिन सजग है और बड़े मजे से बातचीत करता है किन्तु दूसरे ने ज्यादा दारू पी है, वह लड़खड़ाता है। जो खड़ा है, बातचीत कर रहा है, वह तो खानदानी माना जायेगा लेकिन जो लड़खड़ाता है वह शराबी माना जायेगा। लड़ख़ड़ाने वाले को गिरने के भय से बचने के लिए बिना लड़खड़ाने वाले का सहारा चाहिए। इस तरह लड़खड़ाने वाला हो गया पराधीन और जो नहीं लड़खड़ाया है वह हो गया उसका स्वामी।

ऐसे ही शुद्ध चैतन्य में स्फुरण हुआ, उस स्फुरण को जो पचा गये वे ईश्वर कोटि के हो गये। उन्हें निरावरण भी कहते हैं। जो स्फुरण के साथ बढ़ गये, अपने को भूलकर लड़खड़ाने लगे वे जीव हो गये। उन्हें सावरण कहते हैं। जो सावरण हैं वे प्रकृति के आधीन जीते हैं परन्तु निरावरण हैं वे माया को वश में करके जीते हैं। माया को वश करके जीनेवाले चैतन्य को ईश्वर कहते हैं। अविद्या के वश होकर जीने वाले चैतन्य को जीव कहते हैं क्योंकि उसे जीने की इच्छा हुई और देह को ʹमैंʹ मानने लगा।

ईश्वर का चिन्मयवपु वास्तविक ʹमैंʹ होता है। जहाँ से स्फुरण उठता है वह वास्तविक ʹमैंʹ है। जितने भी उच्च कोटि के महापुरुष हो गये, वे भी जन्म लेते हैं तब तो सावरण होते हैं लेकिन स्फुरण का ज्ञान पाकर अपने चिन्मयवपु में ʹमैंʹ पना दृढ़ कर लेते हैं तो निरावरण हो जाते हैं,  ईश्वरस्वरूप हो जाते हैं। उन्हें हम ब्रह्मस्वरूप कहते हैं। ऐसे ब्रह्मस्वरूप महापुरुष हमें युक्ति-प्रयुक्ति से, विधि-विधान से निरावरण होने का उपाय बताते हैं, ज्ञान देते हैं। गुरु के रूप में हम उनकी पूजा करते हैं। यदि ईश्वर और गुरु दोनों आकर खड़े हो जायें तो…..

कबीर जी कहते हैं-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े किसके लागूँ पाय।

बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दिया दिखाय।।

हम पहले गुरु को पूजेंगे, क्योंकि गुरु ने ही हमें अपने निरावरण तत्त्व का ज्ञान दिया है।

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनः।

ʹईश्वर और गुरु की आकृति दो दिखती हैं, वास्तव में दोनों अलग नहीं हैं।ʹ

पुराणों में आता है कि किसी ने पुत्र की अभिलाषा से तप किया। उसके तप से भगवान प्रसन्न हुए और वरदान माँगने के लिए कहा। तपस्वी ने पुत्र की अभिलाषा व्यक्त की। एवमस्तु कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये। समय पाकर उनके घर पुत्र का जन्म हुआ।

जो महापुरुष निरावरण पद को प्राप्त हो जाते हैं वे ईश्वर कोटि के हो जाते हैं। वे महापुरुष मौज में आकर कह दें कि ʹऐसा हो जायेगाʹ तो वह हो जाता है। यह निरावरण तत्त्व में स्थिति की सामर्थ्य है।

जैसे पावर-हाऊस की बिजली का सप्लाई तो वही का वही है, लेकिन उसका उपयोग जहाँ होता है वह साधन जितना बढ़िया होगा उतना ही कार्य अच्छा होगा। ईश्वर का संकल्प जहाँ से स्फुरित होता है वही चैतन्य आपका भी है। आपका संकल्प भी वहीं से स्फुरित होता है। ईश्वर के साधन बढ़िया हैं और आपके अंतःकरण और इन्द्रियाँ रूपी साधन घटिया हैं। है तो वही चैतन्य, फिर भी उसका सामर्थ्य सीमित रहता है। जब आपकी निरावरण स्वरूप में स्थिति होती है, तब उसकी सत्ता-सामर्थ्य है को जान पाते हैं क्योंकि आप भी वही चैतन्य रूप हो जाते हैं। अभी भी आप वही रूप हैं मगर जानते नहीं हैं न ! नश्वर संसार के नाम और रूप में आसक्त होकर उसमें उलझ गये हैं।

नाम और रूप का आधार तो एक ही है। तत्त्वज्ञान के अभाव में भेद दिखता है। वास्तव में भेद नहीं है। जीव और ईश्वर भी कहने भर को दो हैं। वास्तव में दो नहीं हैं।

भगवान परम कृपालु हैं

किसी ने मुझसे प्रश्न कियाः

“यदि भगवान सबका भला ही चाहते हैं तो किसी व्यक्ति के चोरी करने पर उसके हाथ में लकवा कर दें ताकि फिर कोई चोर ही न बनें। यदि ऐसा चमत्कार कर दें कि किसी के झूठ बोलने पर उसकी जीभ कट जाय – तो आगे से कोई झूठ ही न बोल पाये। हमारी बहन पर किसी पड़ोसी के लड़के की बुरी नजर हो तो उस लड़के को ही अंधा बना डालें ताकि दूसरे किसी की ऐसा करने की हिम्मत ही न हो। भगवान यदि अपनी शक्ति को इस प्रकार का ʹमहाप्रसादʹ देने में लगायें तो इतने सारे पुलिस, सिपाही, थाने और कोर्ट-कचहरी आदि की आवश्यकता ही न रहे और सारी झंझटें खत्म हो जायें तथा संसार सुखमय, शांतिमय बन जाये।”

सवाल तो बढ़िया लग रहा है लेकिन ऐहिक ज्ञान के संदर्भ में बढ़िया लग रहा है। कोई झूठ बोले और उसकी जीभ कट जाये, बुरी नजर से देखे और अंधा हो जाये, यदि ऐसा होने लगे तो मनुष्य का विकास रूक जायेगा। आपके कपड़े खराब हो जाते हैं तो क्या आप उन्हें फेंक डालते हो ? नहीं, वरन् आप उसे अच्छे-से-धोकर साफ-सुथरा बनाने की कोशिश करते हो। आपका बेटा कोई गलत काम करता है तो क्या आप उसे घर से बाहर निकाल देते हो ? नहीं, घर से बाहर निकाल देना यह समस्या का हल नहीं है। आप उसे शांति से, प्रेम से समझाकर, आगे से ऐसी गलती न करने का सिखाकर, अच्छे जीवन की ओर प्रोत्साहित करके उसे सुधारने का प्रयास करते हो, विकसित करने का प्रयास करते हो।

चार दिन की जिन्दगानी में भी आप अपने बेटे के विकास के लिए इतने दयालु बनते हो। यदि आपका पुत्र चोरी करता है तो ʹलकवा हो जायेʹ – आप सोच भी नहीं सकते हो, यदि आपका पुत्र किसी लड़की की ओर बुरी नज़र से देखने का अपराध करता है तो आपको उसकी आँखें फोड़ डालने की इच्छा नहीं होती है वरन् आप उसे समझाकर, टोककर, डाँट फटकारकर, मारकर, ʹदूसरी बार ऐसी गलती न होʹ ऐसी चेतावनी जरूर देते हो। फिर भी यदि वह जीवनभर अपराध ही करता रहे तब भी आपको उसके लिए लकवा होने या अंधे हो जाने का विचार हरगिज नहीं आयेगा।

जो पहले आपका न था, मरने के बाद आपका न रहेगा, उस पुत्र के लिए आप इतने उदारहृदयी बनते हो तो जो सदियों से हमारा पिता है, उस परम पिता परमेश्वर के हृदय में हमारे लिए कितनी करूणा होगी ? यदि भगवान इतने कठोर दिल के बन जायें तो मनुष्य के गिरने के बाद सँभलने की योग्यता का विकास नहीं होगा। सिपाहियों को काम नहीं मिलेगा, न्यायधीशों को अपराधी नहीं मिलेंगे तो संसार सुखद नहीं, अपितु भोगप्रधान बन जायेगा।

भगवान तो सदैव हमें बुरे कर्मों से बचाने के लिए हमारे हृदय में अंतर्यामी अवतार लेकर प्रगट होते रहते हैं। यदि हम बुरे कर्म करके सफलता प्राप्त करते हैं और हमारे मित्र हमारी वाहवाही करते हैं फिर भी हमें हृदय में शांति, संतोष और सुख नहीं मिलता है। तब हमें बाह्य रूप से सजा देने के बजाय परम कृपालु परमेश्वर हमारे हृदय में ही अंतर्यामी अवतार लेकर हमें टोकता है, बुरे कर्मों से बचाकर हमें सुधारने की कोशिश करता है। इसी प्रकार जब हम सत्कर्म करते हैं, तब टोकने वाले टोकते हैं फिर भी हमें आंतरिक खुशी मिलती है, हमारा अंतरात्मा, अंतर्यामी परमात्मा हमें धन्यवाद देता है।

हमें सजग रखने के लिए इतना कुछ करने पर भी यदि हम गलत मार्ग पर ही आगे बढ़ते रहते हैं तो अंत में भी वह परम कृपालु परमात्मा निराश न होकर, इस जन्म में तो क्या दूसरा जन्म देकर भी हमें ऊपर उठने का मौका देता है। वह परमात्मा कितना उदार है ! कितना कृपालु है ! वास्तव में तो वही प्राणिमात्र का परम सुहृद एवं अकारण हित करने वाला परम मित्र है। उसी की शरण में रहने में आनंद है…. उसी की स्मृति में आनंद है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 15,16,17 अंक 49

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