10 मिनट की अनमोल साधना
4 मई 2015, वैशाखी पूर्णिमा पर पूज्य बापू जी का संदेश
यह पूनम तुम्हारे जीवन में स्वास्थ्यदायक और शुभ संकल्प फलित करने वाली बने ! पक्का संकल्प करो कि ‘मैं आसन लगा के एक जगह बैठ के प्रतिदिन कम-से-कम 10 मिनट ‘ॐॐॐ…. ‘ का होठों से जप करूँगा।’ इसको बढ़ाते जाना। चिंतन करनाः ‘मिथ्या संसार बदलने वाला और सुख-दुःख की थप्पड़ें देने वाला है, तन-मन-धन जाने वाला है, मैं सत्यस्वरूप, चैतन्यस्वरूप, आनन्दस्वरूप अपने आनंदस्वभाव में बढ़ता जाऊँगा। ॐ आनंदम्….. ॐ शांति….. हरि ॐ…. गुरु ॐ… हरि और गुरु के अनुभव में एकाकार होता जाऊँगा।’
एक हरि, दूसरे गुरु, तीसरे हम-ये व्यावहारिक सत्ता में हैं, पारमार्थिक सत्ता में…. पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान। हरि गुरु, हम न तुम…. दफ्तर गुम ! एक आनंद, चैतन्य अपना आपा ही भासमान हो रहा है। एक ही समुद्र का जल ऊपर-ऊपर अनेक रूप दिख रहा है। एक ही पृथ्वी अनेक देशों, राज्यों, शहरों, गाँवों और गलियारों में बँटी-सी दिख रही है। एक ही आकाश घट, मठ, हिन्दू, ईसाई, पारसी, मनुष्यमात्र एवं जीव जन्तुओं में व्याप रहा है। उसको जानने वाला ‘मैं चिदाकाश ॐस्वरूप आत्मा हूँ।
कहीं बाढ़, कहीं भूकम्प, कहीं नया प्राकट्य तो कहीं मौत, कहीं मिलन तो कहीं बिछुड़न, कहीं नाश कहीं उत्पत्ति ! जैसे सागर की तरंगे ऊपर से दिखने भर को हैं, गहराई में वही शांत उदधि, ऐसे ही तुम गहराई में शांत, साक्षी, चैतन्य अमर आत्मा हो, आनंदस्वरूप हो। यह ॐकार का गुंजन तुम्हें असली स्वतंत्र स्वभाव में सजग कर देगा। सामान्य आदमी अपने को विषय-विकारों में उलझा देता है, सामान्य धार्मिक व्यक्ति अपने को तीर्थों में व धार्मिक स्थानों में घुमाता रहता है लेकिन धनभागी हैं वे लोग जिन्हें आत्मवेत्ता गुरुओं का ज्ञान मिल जाता है ! सत्संग, सत्साहित्य, नियम, व्रत पाने वाले जन्म-मरण से पार हो जाते हैं। ऐसे गुरुभक्तों के लिए भगवान शिवजी ने कहा हैः
धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः।
धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।
लग जाओ होठों में जप करने को, 10 मिनट की साधना अभी से शुरु कर दो। वाह ! शीघ्र बन जाओगे धर्मात्मा और महान आत्मा ! ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ में आता है कि ‘ऐसे साधकों को देखकर तीर्थ बोलते हैं- हम किसको पावन करें ? अंतरंग जप और साधना वाले गुरुभक्त से तो हम पावन होते हैं।’
भृगु ऋषि के शिष्य शुक्र का आदर करते हुए इन्द्रदेव उसको अपने सिंहासन पर बिठाते हैं और अर्घ्य पाद्य से पूजन करते हैं कि ‘आज मेरा स्वर्ग पवित्र हुआ, ब्रह्मवेत्ता गुरु के शिष्य आये। भृगु जैसे ज्ञानी गुरु के शिष्य शुक्र जी आये।’ ॐॐॐ…. फिर से धन्या माता पिता धन्यो….
बाह्य विकास और विनाश तुच्छ है, स्वप्न है। रावण की सोने की लंका का विकास व विनाश तुच्छ हो गया। मीरा, शबरी, एकलव्य, एकनाथ की गुरुभक्ति सर्वोपरि साबित हुई, होती रहेगी… तुम्हारी भी ! ॐॐॐ…
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 11, अंक 270
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