ऐसे सद्गुरु की शरण में जायें

ऐसे सद्गुरु की शरण में जायें


समर्थ रामदासजी

कोई औषधियों का प्रयोग, कीमियागरी (कीमिया – लोहे-ताँबे से सोना-चाँदी बनाने की विद्या), नजरबंदी और केवल दृष्टि से इच्छित वस्तु को तत्काल प्राप्त कर लेने का मार्ग बतलाते हैं। कोई साहित्य, संगीत, राग-ज्ञान, गीत, नृत्य, तान-मान और अनेक वाद्य सिखलाते हैं। ये सभी एक प्रकार के गुरु हैं। कोई पंचाक्षरी विद्या सिखाते हैं अथवा नाना प्रकार की झाड़-फूँक या जिन विद्याओं से पेट भरता है, वे सिखाते हैं। जिस जाति का जो व्यापार है वह पेट भरने के लिए सिखाते हैं, वे भी गुरु हैं परंतु वे वास्तव में सदगुरु नहीं हैं। अपने माता-पिता भी यथार्थ में गुरु ही हैं परंतु जो भवसागर से पार करते हैं, वे सदगुरु दूसरे ही हैं।

जो ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें, अज्ञानांधकार का निवारण करें, जीव और शिव का ऐक्य करें, जीवपन और शिवपन के कारण ईश्वर और भक्त में जो भिन्नता आ गयी है, उसे जो मिटायें अर्थात् परमेश्वर और भक्त को एक करें, वे सदगुरु हैं।

भव-भयरूपी व्याघ्र पंचविषयीरूपी छलाँगे मारकर जीवरूपी बछड़े को ईश्वररूपी गौ से छीन लेता है। उस समय जो अपने ज्ञानरूपी खड्ग (तलवार) से उस व्याघ्र को मारकर बछड़े को बचाते हैं और गौ से फिर उसे मिला देते हैं अर्थात् जीव और ब्रह्म का ऐक्य कर देते हैं, वे ही सदगुरु हैं। जो प्राणी मायाजाल में पड़कर संसार-दुःख से दुःखित हों उनको जो मुक्त करते हैं, वासनारूपी नदी की बाढ़ में डूबता हुआ प्राणी घबरा रहा है – वहाँ जाकर उसे जो पार लगाते हैं, जो ज्ञान देकर गर्भवास के भारी संकट और इच्छा-बंधन की बेड़िया काट देते हैं, जो अपने उपदेश के अप्रतिम प्रभाव से आत्मदर्शन (आत्मानुभव) करा देते हैं, शाश्वत से मिला देते हैं वे ही सद्गुरु हैं, सच्चे रक्षक हैं। जीव बेचारा जो एकदेशीय है, उसे जो साक्षात ब्रह्म ही बना देते हैं और उपदेशमात्र से संसार के सारे संकट दूर करते हैं तथा वेदों का गूढ़ तत्त्व प्रकट करके जो शिष्य के हृदय में अंकित कर देते हैं, वे सदगुरु हैं।

जो गुरु शुद्ध ब्रह्मज्ञानी होते हुए भी कर्मयोगी अर्थात् ‘सत्’ का अनुभव  उपदेश करने वाले होते हैं, वे ही सदगुरु हैं और वे ही शिष्य को परमात्म-दर्शन करा सकते हैं।

शास्त्र-अनुभव, गुरु अनुभव और आत्म-अनुभव – तीनों का मनोहर संगमरूपी लक्षण जिस पुरुष में दिखे, वे ही उत्तम लक्षणों से सम्पन्न सद्गुरु हैं। जो सचमुच में मोक्ष पाना चाहता है ऐसे जिज्ञासु को पूरे मन से और अत्यंत आदर के साथ ऐसे सदगुरु की शरण में जाना चाहिए, उनसे विनम्र व निष्कपट होकर आत्मविद्या का लाभ लेना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 14, अंक 271

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