कैसे होते हैं परमात्मा वामन से विराट ?

कैसे होते हैं परमात्मा वामन से विराट ?


(वामन जयन्तीः 25 सितम्बर 2015)
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।
मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते।।
(कठोपनिषद्- 2.2.3)
प्राण को ऊपर फेंक देता है और अपानवायु को नीचे फेंक देता है और दोनों के बीच में बैठा हुआ है वामन। वामन भगवान का नाम तो आप जानते ही हैं न ! नन्हा सा ईश्वर बैठा हुआ है वहाँ। उन नन्हें को जब तक तुम अपनी बलि नहीं दे देते, तब तक तो वह नन्हा-मुन्ना वामन बनकर बैठा रहता है और जब बलिदान (राजा बलि की कथा के संदर्भ में) हो जाता है, तब वह विराट हो जाता है – ऐसा वामन है, जो ब्रह्म हो जाता है। जब तक तुमने अपने अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोष को उसके प्रति अर्पित नहीं किया, जब तक तुम तीन पाद अर्पित नहीं करोगे, तब तक चतुर्थ पाद की प्राप्ति नहीं होती है। तीन पाद अर्पित करने पड़ते हैं, चतुर्थ पाद वह स्वयं है। स्थूल शरीर एक पाद, सूक्ष्म शरीर द्वितीय पाद और कारण शरीर तो अविद्यात्मक ही है, पाद-वाद नहीं है। वह तो तुरीय के ज्ञानमात्र से ही कि ‘यह तो वामन नहीं है, यह तो ब्रह्म है’ – यह पहचान लेने मात्र से ही तृतीय पाद मिट जाता है और चतुर्थ पाद की प्राप्ति होती है।
मन की उपाधि से ही ब्रह्म वामन बना हुआ है। अगर मन की उपाधि न हो तो ब्रह्म वामन न हो। वह कहाँ बैठा हुआ है ? कि प्राण और अपान की संधि में। जहाँ से वाणी को प्रेरणा मिलती है माने अग्नि-मंथन होता है और जहाँ प्राण व अपान का पृथक्करण होता है, वहाँ ध्यान करो। सोमो यत्रातिरिच्यते – बोले भाई कि चलो यहाँ से, अब ध्यान करेंगे। क्या है वहाँ ? कि सोमो = सोमरस-चन्द्रमा-परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति, मन का अधिदेवता। मन का जो अधिदेवता है उसको चन्द्र बोलते हैं, यही चाँदनी है, यही चन्द्रिका है, यही सोम है, जिसको शंकरजी अपने सिर पर धारण करते हैं। इसको हृदय में धारण नहीं करते, इसको सिर पर धारण करते हैं। शंकर जी ने इस मन को हृदय में से उठाकर अपने सिर पर धारण कर लिया क्योंकि वहाँ भगवान के चरण का जो धोवन गंगाजी हैं, उसको जटा में रखते हैं न ! तो अपने हृदयस्थ मन को निकालकर वहीं लगाते हैं, वहीं रखते हैं।
अब देखो, सोम माने सोमरस-जहाँ स्वाद आता है, जहाँ आनंद की अनुभूति होती है। अग्निर्यत्राभिमथ्यते का अर्थ है कि वाक् का प्रयोग मत करो, मौन हो जाओ और जहाँ से वाणी को प्रेरणा मिलती है उस अभिमंथन के स्थान पर चलो। और वायुर्यत्राधिरुध्यते का अर्थ है प्राण और अपान वायु के चक्कर में न पड़कर इनकी उपेक्षा कर दो माने इनको मंद हो जाने दो-
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।
(गीताः 5.27)
प्राण-अपान की गति को मंद हो जाने दो और वाक् में, जीभ में बिल्कुल मत आओ माने शब्द की कल्पना मत करो, किसी भी शब्द का आधार मत लो, और सोमो यत्रातिरिच्यते – सोमरस का अनुभव करो अर्थात् आनंद लो, वहाँ परमानंद की अनुभूति करो।
तीन बातें हुईं – एक तो प्राण-अपान का ख्याल छोड़ दो, दूसरी – किसी भी शब्द को अपने मन में मत आने दो, मन को निःशब्द कर दो और तीसरी – केवल रसात्मक अवस्था में जाकर बैठ जाओ। तब तत्र संजायते मनः – वहाँ मन का सम्यक् उत्पादन होता है माने ध्यानाकार मन की उत्पत्ति वहीं होती है, वहीं जाकर मनुष्य ध्यानस्थ हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 17, अंक 273
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