दिनांकः 10 मार्च, 1969
प्रिय, प्रिय आशाराम !
विश्वरूप परिवार में खुश-प्रसन्न हो। तुम्हारा पत्र मिला। समाचार जाना।
जब तक शरीर है तब तक सुख-दुःख, ठंडी-गर्मी, लाभ-हानि, मान-अपमान होते रहते हैं। सत्य वस्तु परमात्मा में जो संसार प्रतीत होता है वह आभास है। कठिनाइयाँ तो आती जाती रहती हैं।
अपने सत्संग-प्रवचन में अत्यधिक सदाचार और वैराग्य की बातें बताना। सांसारिक वस्तुएँ शरीर इत्यादि हकीकत में विचार-दृष्टि से देखें तो सुंदर नहीं हैं, आनंदमय नहीं हैं, प्रेम करने योग्य नहीं हैं वे सत्य भी नहीं हैं – ऐसा दृष्टांत देकर साबित करें। जैसे शरीर को देखें तो यह गन्दगी और दुःख का थैला है। नाक से रेंट, मुँह से लार, त्वचा से पसीना, गुदा से मल, शिश्नेन्द्रिय से मूत्र बहते रहते हैं। उसी प्रकार कान, आँख से भी गंदगी निकलती रहती है। वायु शरीर में जाते ही दूषित हो जाती है। अन्न-जल सब कफ-पित्त और दूसरी गंदगी में परिणत हो जाते हैं। बीमारी व बुढ़ापे में शरीर को देखें। उसी मृत शरीर को कोई कमरे में चार दिन रखकर बाहर निकाले तो कोई वहाँ खड़ा भी नहीं रह सकता। विचार करके देखने से शरीर की पोल खुल जायेगी। दूसरी वस्तुओं की भी ऐसी ही हालत समझनी चाहिए। आम कितना भी अच्छा हो, 3-4 हफ्ते उसे रखोगे तो सड़ जायेगा, बिगड़ जायेगा। इतनी बदबू आयेगी कि हाथ लगाने में भी घृणा होगी। इस प्रकार के विचार लोगों को अधिक बताना ताकि उनके दिमाग में पड़ी मोह की पर्तें खुल जायें।
नर्मदा तट जाकर 10-15 दिन रहकर आना। दो बार स्नान करना। अपने आत्मविचार में, वेदांत ग्रंथ के विचारों में निमग्न रहना। विशेष जब रू-बरू मुलाकात होगी तब बताएँगे।
बस, अब बंद करता हूँ। शिव !
हे भगवान ! सबको सदबुद्धि दो, शक्ति दो, निरोगता दो। सब अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें और सुखी रहें।
हरि ॐ शांति, शांति।
लीलाशाह
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 5, अंक 273
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