‘शिव’ माना कल्याणस्वरूप। भगवान शिव तो हैं ही प्राणिमात्र के परम हितैषी, परम कल्याणकारक लेकिन उनका बाह्य रूप भी मानवमात्र को मार्गदर्शन प्रदान करने वाला है।
शिवजी का निवास हिमालय का कैलास पर्वत बताया गया है। ज्ञानी की स्थिति ऊँची होती है, हृदय में शांति व विशालता होती है। ज्ञान हमेशा ऊँचे केन्द्रों में रहता है। आपके चित्त में भी यदि कभी काम आ जाय तो आप भी ऊँचे केन्द्रों में आ जाओ ताकि वहाँ काम की दाल न गल सके।
शिवजी की जटाओं से गंगा जी निकलती हैं अर्थात् ज्ञानी के मस्तिष्क में से ज्ञान की गंगा बहती है। उनमें तमाम प्रकार की ऐसी योग्यताएँ होती हैं, जिनसे जटिल-से-जटिल समस्याओं का भी समाधान अत्यंत सरसता से हो जाता है। शिवजी ने दूज का चाँद अपनी जटाओं में लगाया है। दूज का चाँद विकास का सूचक है अथवा तो दूसरे का छोटा-सा गुण भी ज्ञानवान स्वीकार कर लेते हैं, इतने उदार होते हैं – ऐसा संदेश देता है।
शिवजी ‘नीलकण्ठ’ कहलाते हैं। जो महान हैं वे विघ्न-बाधाओं को, दूसरों के विघ्नों को अपने कंठ में रख लेते हैं। न पेट में उतारते हैं, न बाहर फैलाते हैं। शिवजी महादेव हैं, भोलों के नाथ हैं। अमृत देवों ने ले लिया है। उसमें उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी आदि इन्द्र ने रखा है लेकिन जब हलाहल विष आया है तो शिवजी उसको कंठ में रख लेते हैं। कुटुम्ब में, समाज में भी जो बड़ा है, उसके पास जो सुख सुविधाएँ हैं, उनका वह खुद के लिए नहीं बल्कि कुटुम्बियों और समाज के लिए, परहित के लिए उपयोग करे। अगर विघ्न-बाधा है, हलाहल पीने का मौका आता है तो आप आगे चले जाइये, आपमें नीलकंठ जैसे गुण आने लगेंगे। यश या मान का मौका आता है तो दूसरों को आगे कर दीजिये लेकिन सेवा का मौका आता है तो अपने को आगे रख दीजिये, आपमें अनुपम समता आने लगेगी।
भगवान साम्बसदाशिव आदिगुरु हैं ज्ञान की परम्परा, ब्रह्मविद्या की परम्परा चलाने में। ऐसे भगवान साम्बसदाशिव को प्रसन्न करने के लिए महाशिवरात्रि को शिवमंदिर में आराधना करना ठीक है, अच्छा है लेकिन मौका पाकर एकांत में मानसिक शिव-पूजन करते-करते, उनको प्यार करते-करते इतना जरूर कहना है कि ‘हे भोलानाथ ! हमें बाह्य आकर्षण और बाह्य पदार्थ खींचने लगें तो तुरंत तुम्हारी मंगलमयी परम छवि को, परम कृपा को याद करके हम अंतर्मुख होकर अपने शिव-तत्त्व में डूबा करें।’
संकर सहज सरूपु सम्हारा।
लागि समाधि अखंड अपारा।। श्री रामचरित. बा. कां. 57.4
पार्वती जी ने राम की परीक्षा लेनी चाही और शिवजी के आगे आकर वर्णन करने में थोड़ा इधर-उधर कहा। शिवजी ने देखा कि ‘संसार में और बाहर कुछ-न-कुछ विघ्न और खटपट होते ही रहते हैं।’ शिवजी ने तुरंत अपने आत्मस्वरूप की स्मृति की और अखंड, अपार समाधि में स्थित हुए। ऐसे समाधिनिष्ठ महापुरुष भगवान चन्द्रशेखर का इस पर्व पर खूब भावपूर्ण चिंतन, पूजन करते-करते समाहित (एकतान, शांत) होने का सुअवसर पाना।
शिवजी के पास सर्जन और विध्वंस-दोनों का मूल तत्त्व सदा छलकता रहता है। हमारी संस्कृति की यह विशेषता रही है कि विध्वंसक देवता का सर्जन प्रतीक रख दिया शिवलिंग ! जैसे फूल और काँटे एक ही मूल में से आते हैं, ऐसे ही सर्जनात्मक और विध्वंसक शक्तियाँ एक ही मूल में हैं। जीवन और मृत्यु उसी मूल में हो रहा है, सुख और दुःख उसी मूल का खिलवाड़ है। मान और अपमान उसी साक्षी में हो रहा है. उसी साक्षी की सत्ता में दिख रहा है ! यह सनातन धर्म का रहस्य समझाने की बड़ी उदार प्रक्रिया है, बहुत सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम – सर्वोपरि तत्त्वज्ञान है।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।
(‘हे अर्जुन !,) जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।’ (गीताः 7.2)
जिसको पाने के बाद और कुछ पाना बाकी नहीं रहता और जिस लाभ से बड़ा कोई लाभ नहीं है, ऐसा यह आत्मलाभ प्राप्त करने के लिए महाशिवरात्रि का मौका बड़ा सहायक होगा।
हो सके तो उस दिन फल और दूध पर रहें। फलादि लेते हैं तो भी सात्त्विक और मर्यादित लें, इससे प्राणशक्ति ऊपर के केन्द्रों में चलेगी। हो सके तो महाशिवरात्रि के दिन मौन-व्रत ले लें।
सबसे बड़ी पूजा-मानस पूजा
देवो भूत्वा देवं यजेत्। शिव होकर शिव की पूजा करो। साधक कहता है कि ‘हे भोलेनाथ ! हे चिदानंद !” मैं कौन सी सामग्री से तेरा पूजन करूँ ? मैं किन चीजों को तेरे चरणों में चढ़ाऊँ ? छोटी-छोटी पूजा की सामग्री तो सब चढ़ाते हैं, मैं मेरे मन और बुद्धि को ही तुझे चढ़ा रहा हूँ ! बिल्वपत्र लोग चढ़ाते हैं लेकिन तीन बिल्वपत्र अर्थात् तीन गुण (सत्व, रज, और तम) जो शिव पर चढ़ा देते हैं, वे शिव को बहुत प्यारे हो जाते हैं। दूध और दही से अर्घ्य-पाद्य पूजन तो बहुत लोग करते हैं किंतु मैं तो तेरे मन और बुद्धि से ही तेरा अर्घ्य-पाद्य कर लूँ। घी-तेल का दीया तो कई लोग जलाते हैं लेकिन हे भोलेनाथ ! ज्ञान की आँख से देखना, ज्ञान का दीया जलाना वास्तविक दीया जलाना है। हे शिव ! अब आप समझ का दीया जगा दीजिये ताकि हम इन नश्वर देह में समझदारी से रहें। पंचामृत से आपका पूजन होता है। बाहर का पंचामृत तो रूपयों पैसों से बनता है लेकिन भीतर का पंचामृत तो भावनामात्र से बन जाता है। अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों तेरी सत्ता से सँचालित हैं ऐसा समझकर मैं तुझे पंचामृत से स्नान कराता हूँ। तेरे मंदिर में घंटनाद होता है। अब घंटनाद तो ताँबे-पीतल के घंट से बहुत लोग करते हैं, मैं तो शिवनाद और ॐनाद का ही घंटनाद करता हूँ। हमको भगवान शिव ज्ञान के नेत्रों से निहार रहे हैं। हम पर आज भगवान भोलेनाथ अत्यंत प्रसन्न हैं।’
दृढ़ संकल्प करें कि ‘मेरे मन की चंचलता घट रही है, मुझ पर शिव-तत्त्व की, महाशिवरात्रि की और सत्संग की कृपा हो रही है। हे मन ! तेरी चंचलता अब तू छोड़। राजा जनक ने, संत कबीर जी ने जैसे अपने आत्मदेव में विश्रांति पायी थी, श्रीकृष्ण की करुणा और कृपा से जैसे अर्जुन अपने-आप में शांत हो गया, अपने आत्मा में जग गया, उसी प्रकार मैं अपने आत्मा में शांत हो रहा हूँ, अपने ज्ञानस्वरूप, साक्षी-द्रष्टास्वरूप में जग रहा हूँ।’ इससे तुम्हारा मन देह की वृत्ति से हटकर अंतर्मुख हो जायेगा। यह चौरासी लाख योनियों के लाखों-लाखों चक्करों के जंजाल से मुक्ति का फल देने वाली महाशिवरात्रि हो सकती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 278
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