प्रेम की मूर्ति और दया का समुद्रः सीता जी

प्रेम की मूर्ति और दया का समुद्रः सीता जी


(श्री सीता नवमीः 14 मई 2016)

राम जी ने रावण को स्वधाम पहुँचाने के बाद हनुमान जी को अशोक वाटिका में जा के सीता जी को विजय का संदेशा देकर आने की आज्ञा दी। हनुमान जी अशोक वाटिका पहुँचे, सीता माँ को साष्टाँग दण्डवत प्रणाम किया और कहाः “माँ ! प्रभु ने रावण का वध कर दिया है। श्री राम जी ने आपका कुशल पूछा है। आपके पातिव्रत धर्म के प्रभाव से ही युद्ध में श्रीराम जी यह महान विजय प्राप्त की है।”

श्री राम जी का संदेशा पाकर सीता जी का गला भर आया। आनंद के आँसू छलकाते हुए वे गदगद वाणी में बोलीं- “सौम्य वानरवीर ! ऐसा प्रिय समाचार सुनाने के कारण मैं तुम्हें कुछ पुरस्कार देना चाहती हूँ किंतु इस भूमंडल पर ऐसी कोई वस्तु नहीं दिखती। मेरा आशीर्वाद है कि मेरे हनुमान को काल भी नहीं मार सकेगा।”

हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहाः “माँ ! राम जी का संदेश लेकर जब मैं पहली बार लंका में आया था, तब मैंने देखा था कि ये राक्षसियाँ मेरी माँ को बहुत त्रास दे रही थीं। ये बहुत कर्कश शब्द बोलती थीं, आपको बहुत डराती थीं, बहुत खिझाती थीं। माँ ! इन राक्षसियों को देखकर मुझे बहुत क्रोध आता है। आप आज्ञा दो तो मैं एक-एक राक्षसी को पीस दूँ।”

सीता जी बोलीं- “बेटा ! यह तू क्या माँगता है ? मेरा पुत्र होकर तू ऐसी माँग करता है ? वैर का बदला वैर से लेना उचित नहीं। ये बेचारी राजा के आश्रय में रहने के कारण पराधीन थीं। उस राक्षस की आज्ञा से ही ये मुझे धमकाया करती थीं। मैं इनके अपराधों को क्षमा करती हूँ। मैं तो ऐसा विचार करती हूँ कि अब मुझे अयोध्या जाना है, इतने अधिक दिन में इन राक्षसियों के साथ रही हूँ तो ये जो वरदान माँगे वह मुझको देना है। बेटा ! मैंने तो निश्चय किया है इन राक्षसियों को सुखी करके ही मैं यहाँ से जाऊँगी। ये बहुत दुःखी हैं। तू किसी भी राक्षसी को मारना नहीं।”

हनुमान जी ने सीता माँ की जय-जयकार की। सीता माँ को साष्टाँग प्रणाम करके हनुमान जी ने कहाः “ऐसी दया मैंने जगत में कहीं नहीं देखी। माँ ! आप जगन्माता हैं इसलिए आपको सब पर दया आती है।”

कैसा है सीता जी का विशाल हृदय ! सीता जी प्रेम की मूर्ति और दया का समुद्र थीं।

हे नित्य अवतार लेने वाले सर्वेश्वर ! तुम्हारी आह्लादिनी शक्ति में, महामाया में इतनी करूणा छुपी है कि अधम स्वभाव वाली, कष्ट देने वाली राक्षसियों को भी वे सुखी करके ही जाने का निश्चय करती हैं, फिर साक्षात तुम्हारा सान्निध्य पाने  वालों को तुम्हारा कितना कारूण्य-लाभ मिलता है यह वर्णन करने में कौन समर्थ है ? हे परमेश्वर ! हे करुणासिंधो, हे अंतरात्म-राम ! शीघ्र सभी को सान्निध्य-लाभ प्रदान करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 23, अंक 280

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