उस समय कोसल देश में सूर्यवंश के राजा ध्रवुसंधि का राज था। उनकी दो रानियाँ थीं – मनोरमा और लीलावती। मनोरमा का पुत्र सुदर्शन बड़ा भाई और लीलावती का पुत्र शत्रुजित छोटा भाई था। कुछ समय बाद राजा की असमय मृत्यु हो गयी। सुदर्शन के नाना कलिंग नरेश वीरसेन और शत्रुजित के नाना उज्जैन नरेश युधाजित अपने-अपने नाती को राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे। दोनों में युद्ध हुआ। वीरसेन युद्ध में मारे गये। शत्रुजित का नाना युधाजित अपने नाती के राज्य को निष्कंटक बनाने के लिए सुदर्शन की हत्या करने वाला था। इसलिए महारानी मनोरमा अपने पुत्र को लेकर चुपके से भाग निकली। गंगातट पर आयी तो वहाँ के निषाद डकैतों ने उनका सारा धन माल, गहने छीन लिये। विपत्तियों-पर-विपत्तियाँ टूट रही थीं – पति मर गये, पिता युद्ध में मारे गये, राजपाट छिन गया….। अतः पुत्र को लेकर रानी किसी प्रकार गंगा पार करके भारद्वाज ऋषि के आश्रम में आयी। ऋषि ने उसे आश्रय दिया और कहाः “हे कल्याणि ! तुम यहाँ भयरहित होकर निवास करो।”
जब शत्रुजित के नाना को इस बात का पता चला तो वह सेना लेकर वहाँ आ धमका और ऋषि से बोलाः “हे सौम्य मुने ! आप हठ छोड़ दीजिए और मनोरमा को विदा कीजिए, इसे छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा। (यदि आप नहीं मानेंगे तो) मैं इसे अभी बलपूर्वक ले जाऊँगा।”
राजा के ऐसे गर्वपूर्ण वचन सुनकर ऋषि बोलेः “जैसे प्राचीन काल में विश्वामित्र वसिष्ठ मुनि की गौ ले जाने के लिए उद्यत हुए थे, उसी प्रकार यदि आपमें शक्ति हो तो आज मेरे आश्रम से इसे बलपूर्वक ले जाइये!”
ऋषि के ऐसे निर्भीक उत्तर से राजा भयभीत हो गया। उसने अपने वृद्ध मंत्री से सलाह की। मंत्री ने कहाः “हे राजन ! ऐसा दुस्साहस नहीं करना चाहिए। तपस्वियों, ब्रह्मज्ञानी संतों का साथ किया जाने वाला संघर्ष निश्चित ही कुल का नाश करने वाला होता है। सुदर्शन को यहीं छोड़ दीजिये।” राजा लौट गया।
ऋषि के आश्रम में सुदर्शन ने प्रेम, अनुशासन, शिक्षा तथा सुसंस्कार पाये। 5 वर्ष की उम्र में बालक मंत्र को सबका सार समझकर कभी नहीं भूलता था। वह खेलते, सोते मन-ही-मन मंत्र जपता था। मुनि ने राजकुमार को वेद, धनुर्वेद, नीतिशास्त्र की शिक्षा दी। मंत्रजप तथा उपासना के प्रभाव से उसे दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्राप्त हुए। इसके बाद सुदर्शन ने अयोध्या का राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। युद्ध में शत्रुजित तथा युधाजित दोनों मारे गये। इस प्रकार जनता को एक सुयोग्य राजा मिला।
संत-महापुरुषों की कैसी करूणा होती है ! वे समाज की भलाई के लिए किसी की परवाह नहीं करते, दूसरों के मंगल के लिए बड़ी-से-बड़ी मुसीबतें भी अपने सिर लेने से नहीं झिझकते। शरणार्थी की योग्यता-अयोग्यता को न देखते हुए उसे अपना लेते हैं और अपना अनुभव, ज्ञान, तप और साधना का खजाना दे देते हैं।
जो संतों के प्रति सदभाव रखते हैं, उनके ज्ञान को अपने जीवन में उतारते हैं वे अपना कल्याण कर लेते हैं पर जो उनके प्रति दुर्भाव से निंदा करते-करवाते रहते हैं, उन्हें नानक जी ने चेताया हैः
संत का निंदकु महा हतिआरा1।।
संत का निंदकु परमेसुरि2 मारा।।
संत के दोखी3 की पुजै न आसा4।।
संत का दोखी उठि चलै निरासा।।
1 महाहत्यारा। 2 परमेश्वर 3 संत का निंदक 4. आशा।
संत कबीर जी ने भी सावधान किया हैः
कबिरा निंदक ना मिलो, पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2016, पृष्ठ संख्या 11 अंक 281
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