न्यायालय ने पुलिस को लगायी फटकार
गांधीनगर (गुज.) के जिला व सत्र न्यायालय ने वर्ष 2001 में गांधीनगर में आयोजित रैली के दौरान पुलिस के साथ कथित रूप से मारपीट के मामले में 11 अप्रैल 2016 के 244 साधकों को निर्दोष बरी कर दिया।
6 साल से अधिक समय के दौरान 122 गवाहों के बयान, जिरह एवं लम्बी बहस हुई। अदालत के अनुसार ‘अभियोजन पक्ष इस मामले में साधकों के खिलाफ कोई आरोप सिद्ध नहीं कर सका। आरोप पत्र में कई विसंगतियाँ हैं। घायलों की रिपोर्ट भी सही प्रतीत नहीं होती है।’ साथ ही न्यायालय ने साधकों के खिलाफ हिंसा व हत्या के प्रयास के आरोप के तहत मामला दर्ज करने पर पुलिस की खिंचाई भी की।
यह था मामला
गुजरात के एक अख़बार द्वारा किये जा रहे अनर्गल कुप्रचार के विरोध में 16 नवम्बर 2001 को गांधीनगर में एक प्रतिकार रैली निकाली गयी थी। इस रैली में कुप्रचारकों के सुनियोजित षड्यंत्र के तहत असामाजिक तत्त्वों ने साधकों जैसे कपड़े पहनकर भीड़ में घुस के पथराव किया, जिसके प्रत्युत्तर में पुलिस ने साधकों-भक्तों एवं आम जनता पर, जिनमें अनेक महिलाएँ, वृद्ध व बच्चे भी थे, न सिर्फ बुरी तर लाठियाँ बरसायीं बल्कि आँसू गैस के गोले छोड़े और उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया।
दूसरे दिन पुलिस ने अहमदाबाद आश्रम पर अचानक धावा बोल दिया। आश्रम में भारी तोड़फोड़ की तथा साधकों को लाठियों और बंदूक के कुंदों से बुरी तरह पीटते हुए दौड़ा-दौड़ा कर पुलिस की गाड़ियों में ठूँस के जेल में डाल दिया। उन्हें 24 घंटे से ज्यादा समय तक गैरकानूनी रूप से हिरासत में रखा गया तथा शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया, उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत किया गया।
इस प्रकार षड्यंत्रकारियों द्वारा बद-इरादतन उपजायी गयी इस घटना के तहत निर्दोष साधकों पर आई. पी. सी. 307 (हत्या का प्रयास) व अन्य कई गम्भीर धाराओं के अंतर्गत पुलिस ने मामला दर्ज किया था।
साधकों में बच्चे , महिलाएँ व वृद्ध साधक भी शामिल थे, जिन्हें कई सप्ताह तक जेल में रहना पड़ा। पुलिस रिमांड के दौरान एवं जेल में भी खूब शारीरिक व मानसिक यातनाएँ सहन करनी पड़ीं।
गौरतलब है कि जब इन निर्दोष साधकों के ऊपर आरोप लगाया गया था, उस समय मीडिया ने इस घटना को अत्यंत विकृत रूप देकर खूब बढ़ा चढ़ा के दिखाया गया था तथा एड़ी चोटी का जोर लगाकर साधकों को गुंडे, उपद्रवी, खूनी सिद्ध करने में एवं आश्रम व पूज्य बापू जी को समाज में बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन अब जबकि सच्चाई सामने आ चुकी है तो कुछ गिने-चुने मीडिया को छोड़कर अन्य ने इस खबर को समाज तक पहुँचाने में कोई रूचि नहीं दिखायी। क्या यही है मीडिया की निष्पक्षता ? इससे तो सिद्ध होता है कि ऐसा मीडिया भी असामाजिक तत्त्वों से मिलकर समाज को गुमराह करता है। ऐसे मीडिया का सामूहिक बहिष्कार करना समाज का नैतिक कर्तव्य है।
जब असामाजिक तत्व पुलिस और मीडिया का सहयोग लेकर इतनी बड़ी आध्यात्मिक संस्था के निर्दोष साधकों को भी यातना दे सकते हैं, तब आम आदमी का कितना शोषण होता होगा यह विचारणीय है।
इस सबमें आश्रम एवं निर्दोष साधकों ने जो यातनाएँ सहीं, उन्हें जो आर्थिक व सामाजिक क्षति भुगतनी पड़ी उसकी भरपाई क्या कभी भी हो पायेगी ?
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2016, पृष्ठ संख्या 10,29 अंक 281
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