(ऋषि प्रसाद जयंतीः 19 जुलाई 2016)
हम असत्य से सत्य की ओर जायें, अंधकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर जायें इसीलिए मनुष्य जन्म मिला है और ऋषियों का यही प्रसाद है।
मेरे गुरुदेव 10 महीने तो सत्संग साधन-भजन आदि द्वारा समाजरूपी देवता की सेवा करते थे, 2 महीने नैनीताल के जंगल में एकांत में रहने पधारते थे। तब भी वे महापुरुष सुबह घूमने जाते तो छोटी मोटी गठरी बना लेते कुछ पुस्तकों की। उसे अपने सिर पर रखकर पहाड़ी पर जहाँ आश्रम था वहाँ से नीचे उतरते और दूसरी पहाड़ी पर जहाँ देहातियों के 25-50 घर होते, वहाँ जाकर उन लोगों को ‘ईश्वर की ओर’, ‘पुरुषार्थ परम देव’, जैसी, विद्यार्थियों के लिए अमुक-अमुक, नारियों के लिए अमुक-अमुक पुस्तकें देते। उन महापुरुष ने सिर पर गठरी रखकर पहाड़ी के देहातियों को भी भगवद्भक्ति मिले, उनका शरीर स्वस्थ रहे और जीवन जीवनदाता के काम आने योग्य बने तथा उनके कुल-खानदान का मंगल हो ऐसे साहित्य को पहुँचाने की सेवा की।
तो इतना श्रम करके जिन महापुरुषों ने शास्त्र का प्रसाद लोगों तक पहुँचाया, उन्हीं महापुरुषों का कृपा-प्रसाद सत्संग के रूप में और ऋषि प्रसाद के रूप में ऋषि प्रसाद के सेवकों के द्वारा घर-घर अभी भी पहुँच रहा है। फर्क यह है कि वे गठरी बाँधकर सिर पर ले जाते थे और अभी उनके पोते…. मैं गुरु जी का शिष्य अर्थात् बेटा हुआ और मेरे शिष्य उनके पोते… कोई साइकिल पर तो कोई स्कूटर पर तो कोई बस में तो कोई पैदल थैले में ऋषि प्रसाद लेकर जाते हैं लेकिन काम वही कर रहे हैं। और वे पुस्तकें अनेक होती थीं जबकि ऋषि प्रसाद एक है परंतु इसमें अनेक पहलुओं का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान हर महीने मिलता है। वहाँ तो साल में दो महीने ही गुरु जी ऐसा करते थे, यहाँ तो बारहों महीना लोगों को ताजा प्रसाद मिलता रहता है। मुझे तो लगता है कि मेरे गुरु जी के श्रम से आपका श्रम कम है लेकिन सेवा आपकी दूर तक पहुँचती है। गुरु जी तो एक-दो गाँव में घूमकर साहित्य देते थे, तुम तो दसों गाँव तक पहुँच जाते हो। इसीलिए हजारों नहीं, लाखों घरों में ऋषि प्रसाद जाती है।
ऋषियों की, संतों की, वैदिक संस्कृति की प्रसादी लोगों तक पहुँचाना यह स्वार्थी आदमी के बस का नहीं है। सेवा करके जो वाहवाही चाहता है वह अपनी सेवा का धन खर्च डालता है। ‘जहाँ आदर हो वहाँ ऋषि दें और जहाँ अनादर हो वहाँ न दें, नहीं-नहीं, जहाँ अनादर होता है वहाँ खास जाओ।
आदर तथा अनादर, वचन बुरे त्यों भले।
निंदा स्तुति जगत की, धर जूते के तले।।
वह आदमी ईश्वर को पा लेगा। ‘आदर तथा अनादर शरीर का है, मेरा नहीं है। अपना तो उद्देश्य सेवा का है’ जो ऐसा मानेगा, वह मनुष्य दुनिया को बहुत कुछ दे सकता है।
‘ऋषि प्रसाद’ पत्रिका घर-घर तक पहुँचाने की दैवी सेवा करने वाले पुण्यात्माओं का हौसला बुलंद है। यह ‘ऋषि प्रसाद’ पहुँचाने की दैवी सेवा करने वालों को अपनी योग्यता के अनुसार जैसा भी कोई काम मिलता होगा, वे अगर शांत होकर अपने पिया प्रभु से पूछें कि ‘मैंने यह किया, कैसा किया ?’ तो मैं दावे से कहता हूँ कि उनका अंतरात्मा कहेगा कि ‘बहुत बढ़िया कर रहे हो !’ उन्होंने अपने कर्तृत्व का सदुपयोग सत्यस्वरूप ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किया है तो उनका अंतरात्मा संतुष्ट होता होगा। हर एक शुभ कर्म कर्ता को संतोष की झलक देता है। ऐसा करते-करते कर्ता का अंतःकरण शुद्ध होता है। कर्म करने के पहले उत्साह होता है, कर्म करते वक्त पौरूष होता है, कर्म करने के बाद कर्म का फल अपने हृदय में फलित होता है। अपने हृदय में शांति, आनंद, प्रसन्नता अथवा अंतरात्मा का धन्यवाद फलित हो तो कर्ता मान ले कि यह कर्म प्रवृत्ति, पराश्रय से तो हुआ लेकिन इसने ‘स्व’ के आश्रम में ला दिया। जब परमात्मा के निमित्त, प्रभु की प्रसन्नता के निमित्त युद्ध जैसा घोर कर्म करके भी आदमी मुक्ति पा सकता है, अर्जुन, भीष्म मुक्ति पा सकते हैं तो फिर मुक्ति का मार्ग दिखाने वाली ‘ऋषि प्रसाद के दैवी कार्य में भागीदार होने वाले मुक्ति के रास्ते की यात्रा नहीं कर पायेंगे ? जरूर करते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2016, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 283
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