अलख पुरुष की आरसी….

अलख पुरुष की आरसी….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
संत कबीर से किसी ने पूछाः
“हम निर्गुण-निराकार परमात्मा को तो नहीं देख सकते, फिर भी देखे बिना न रह जायें ऐसा कोई उपाय बताइये।”
कबीर जी ने कहाः
अलख पुरुष की आरसी, साधु का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।
“परमात्मा को देखने के लिए ये चर्मचक्षु काम नहीं आते। फिर भी यदि तुम परमात्मा को देखना ही चाहते हो तो जिनके हृदय में परमात्माकार वृत्ति प्रकट हुई है, जिनके हृदय में समतारूपी परमात्मा प्रकट हुए हैं, जिनके हृदय में अद्वैतज्ञानरूपी परमात्मा प्रकट हुए हैं, ऐसे हृदय वाले किन्हीं महापुरुष को तुम देख सकते हो। उनको देखते ही तुम्हें परमात्मा की याद आ जायेगी। जिनके दिलों में ईश्वर निरावरण हुआ है, ऐसे संत-महापुरुषों को तुम देख सकते हो।”
साधु का ही देह एक ऐसा दर्पण है, जिसमें तुम उस अलख पुरुष परमात्मा के दर्शन कर सकते हो। अतः यदि अलख पुरुष को देखना चाहते हो तो ऐसे किन्हीं परमात्मा के प्यारे संतों के दर्शन करने चाहिए।
शुद्ध हृदय से, ईमानदारी से उन महापुरुषों का चिंतन करके हृदय को धन्यवाद से भरते जाओगे तो तुम्हारे हृदय में परमात्मा प्रकट होने में देर नहीं लगेगी। परमात्म-प्राप्ति इतनी सरल होने पर भी लोग उसका फायदा तो नहीं उठाते हैं, वरन् संतों के बाह्य व्यवहार को देखकर अपनी क्षुद्र मति से उन्हें तौलने लगते हैं और अपनी ही हानि कर बैठते हैं।
वशिष्ठ जी महाराज भी कहते हैं कि ‘शास्त्रकर्त्ता का और लक्षण न विचारना, पर शास्त्र की युक्ति विचार देखनी है। अज्ञानी जो कुछ मुझे कहते और हँसते हैं, सो मैं सब जानता हूँ, परंतु मेरा दया का स्वभाव है इससे मैं चाहता हूँ कि किसी प्रकार वे नरकरूप संसार से निकलें। इसी कारण मैं उपदेश करता हूँ।
जिनके श्रीचरणों में अयोध्या नरेश दशरथ शीश नवाकर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं और श्रीराम जिनके शिष्य हैं, ऐसे गुरुवर वशिष्ठजी के लिए भी कहने वालों ने क्या-क्या नहीं कहा ? अतः यदि कोई तुम्हारे लिए भी कुछ कह दे तो चिंता मत करना वरन् उसे धन्यवाद देना।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। उस समय किसी विकृत मानसिकता वालों ने एक सस्ते अख़बार में उनके विषय में कुछ का कुछ छपवाना शुरु कर दिया कि ‘वे ऐसे हैं, वैसे हैं….।’ जो कुछ भी कचरा उसके मस्तिष्क से निकलता, उसे कलम द्वारा अख़बार में छपवाता और यदि कोई अख़बार न भी लेना चाहे तो उसे जबरदस्ती पकड़ाता, मुफ्त में बँटवाता।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के किसी प्रशंसक ने उन्हें वह अख़बार दिखाया, राजेन्द्र प्रसाद ने उसे फाड़कर फेंक दिया। दूसरा कोई व्यक्ति भी वह अख़बार लेकर आया तो उन्होंने उसे भी कचरा पेटी में डाल दिया। वह निंदक कुप्रचार करता ही रहा। आखिर राजेन्द्र प्रसाद के कुछ मित्रों ने कहाः
“यह व्यक्ति आपके विरूद्ध इतना कुछ लिख रहा है और आप कुछ नहीं करते ! अब तो आप राष्ट्रपति हैं, आपके पास क्या नहीं है ? आप चाहें तो उसके विरुद्ध कोई भी कदम उठा सकते हैं। आप उसे कुछ कहें, कुछ तो समझायें। न समझे तो फटकारें, परंतु कुछ तो करें।”
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मुस्कराते हुए बोलेः “वह मेरी बराबरी का होता तो मैं उसे जवाब देता। जो विकृत मस्तिष्क वाले होते हैं, उनके शत्रुओं की कमी नहीं होती। कभी उसकी मति भी ऐसी हो जायेगी कि उसे दूसरा कोई शत्रु मिल जायेगा और वे आपस में ही लड़ मरेंगे। लोहे से लोहा कट जायेगा।”
उन लोगों ने फिर कहाः “परन्तु वह आपके लिए इतना सारा लिखता रहता है, आपको कुछ तो जवाब देना ही चाहिए।”
डॉ. राजेन्द्र प्रसादः “इसकी कोई जरूरत नहीं है।”
राजेन्द्र प्रसाद पर तो उस निंदक के कार्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु उनके परिचित और मित्र परेशान हो उठे। अतः पुनः बोलेः
“हम आपके पास आते जाते रहते हैं और आपकी बदनामी हो रही है तो उसका प्रभाव हमारे संबंधों पर भी पड़ रहा है। हमें भी लोग जैसा चाहे सुना देते हैं, अतः आपको कुछ तो करना ही चाहिए।”
तब राजेन्द्र प्रसाद ने एक दृष्टांत देते हुए कहाः “एक हाथी जा रहा था। उसके पीछे कुत्ते भौंकने लगे परंतु हाथी अपनी ही मस्ती में चलता रहा। हाथी हाथी से टक्कर ले तो अलग बात है। यदि हाथी कुत्तों को समझाने या चुप कराने लगे तो इसका अर्थ यह होगा कि वह कुत्तों के साथ अपनी तुलना करने लगा है और अपनी महिमा भूल गया है ! हाथी की अपनी महिमा है।”
कबीर जी ने कहा हैः
हाथी चलत है अपनी चाल में,
कुतिया भूँके वा को भूँकन दे।
मन ! तू राम सुमिरकर, जग बकवा दे।।
अपनी महिमा में मस्त रहने वाले, संत महापुरुष पर लोगों की अच्छी बुरी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जो संतों का आदर-पूजन और सेवा करता है, वह अपना भाग्य बना लेता है तथा संतों के दैवी अनुभव में भी भागीदार हो जाता है। परंतु जो संतों की निंदा करता है, संतों को सताता है वह अपने भाग्य पर कुठाराघात करता है। संतों की नजर में तो कोई अच्छा-कोई बुरा, कोई काला-कोई गोरा, कोई माई-कोई भाई….. ऐसा नहीं होता। संतों की नज़र में तो केवल ‘एकमेवाद्वितियोऽहम्।’ होता है।
उनके प्रति जिसकी जैसी भावना, जैसी दृष्टि, जैसा प्रेम होता है, वैसा ही उसे हानि-लाभ होता है।
करनी आपो आपनी, के नेड़े के दूर।
अपने ही कर्मों से, अपने ही भावों से आप अपने-आपको सदगुरु और संतों के निकट अनुभव करते हो तथा अपने ही कर्मों और भावों से उनसे दूरी का अनुभव कराते हो। संतों के हृदय में तो कोई अपना या पराया नहीं होता। आजकल का, कलियुग का अल्प मति वाला मानव बुरी बातों को बहुत जल्दी स्वीकार कर लेता है, किंतु अच्छी बातों को स्वीकार नहीं करता। सच्चाई फैलानी हो तो जीवन पूरा हो जाता है पर कुछ गड़बड़ फैलानी हो तो फटाफट फैल जाती है। लोग तुरंत ही कुप्रचार के शिकार हो जाते हैं क्योंकि उनकी अल्पमति है। उनकी विचारशक्ति कुंठित हो गयी है।
नरसिंह मेहता गुजरात के प्रमुख संत हो गये। उनके लिए भी ईर्ष्यालु लोगों ने कई बार खूब अफवाहें फैलायी थीं। अफवाह फैलाने वाले, व्यर्थ के आरोप लगाने वाले, छापने-छपाने वाले किस नरक में पचते होंगे ? किस माता के गर्भ में लटकते होंगे ? वह हम और आप नहीं जानते, परंतु नरसिंह मेहता को तो आज भी हजारों-लाखों लोग जानते मानते हैं और उनका नाम बड़े-आदर व प्रेम से लेते हैं।
नरसिंह मेहता श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे प्रभुपद गाते-गाते इतने भाव-विभोर हो उठते थे कि अपने-आपको ही भूल जाते थे ! नरसिंह मेहता जब नरसिंहपना छोड़ देते तो श्रीकृष्ण अपना कृष्णपना कैसे रख सकते थे ? जब पुत्र अपना पुत्रपना भूल कर प्रेम से पिता के साथ बातें करने लगता है तो पिता भी पिताभाव कैसे रख सकता है ? पिता भी पुत्र के साथ तोतली भाषा में बोलने लग जाता है।
नरसिंह मेहता श्रीकृष्ण का चिंतन करते-करते इतने तन्मय हो जाते थे कि जो लोग उनके दर्शन करने आते, वे भी धन्य हो उठते ! कृतार्थ हो उठते ! वे लोग भी उनके साथ नाचने और झूमने लग जाते, कृष्ण-कन्हैया के भाव में आ जाते।
ऐसे नरसिंह मेहता के विषय में भी जब व्यर्थ के आरोप लगे, अफवाहें फैलने लगीं, तब कुछ भक्तों की मति भी कुप्रचार के कारण डाँवाडोल हो गयी और कुछ लोग तो कुप्रचार के शिकार हो कर वहाँ से खिसक भी गये।। निंदक कहने लगे कि ‘यदि नरसिंह मेहता में सच्चाई हो तो साबित करके दिखायें।’ परंतु नरसिंह मेहता के लिए फैलायी गयी अफवाहें हर बार गलत ही साबित हुईं। उनकी दृढ़ भक्ति के कारण चमत्कार होते तो चमत्कार के प्रेमी उनके पास एकत्रित होते रहते। वे चमत्कार के भक्त थे, नरसिंह मेहता के भक्त नहीं थे।
ऐसा कई संतों के साथ होता है। जब तक सब ठीक लगता है, वाहवाही होती है, तब लोग संतों के साथ होते हैं। परंतु जब दुरात्मा लोग संगठित होकर गड़बड़ पैदा कर देते हैं तो वे लोग खिसक जाते हैं। ऐसे लोग सुविधा और वाहवाही के भक्त होते है, संत के भक्त नहीं होते।
संत का भक्त तो वही है जो चाहे कैसी भी विपरीत परिस्थिति आये, पर अपना भक्तिभाव नहीं छोड़ता। सुविधा के भक्त तो कब उलझ जायें, कब भाग जायें, पता नहीं परंतु जो निःस्वार्थ भक्त होता है वह अडिग रहता है, कभी फरियाद नहीं करता और दुर्बुद्धि निंदकों के चक्कर में नहीं आता। सच्चे भक्त तो संत के दर्शन, सत्संग और उनकी महिमा का गुणगान करते-करते कभी थकते ही नहीं। परंतु संत का संतत्व न सबसे भी परे है। किसी की निंदा अथवा विरोध से उनकी कोई हानि नहीं होती और किसी के द्वारा प्रशंसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता।
सच्चे संतों का आदर-पूजन जिनसे सहन नहीं होता, ऐसे ईर्ष्यालु लोगों ने ही पूरी ताकत से संतों का कुप्रचार किया है। संतों के व्यवहार को पाखंड कहकर उन्होंने ही धर्म के प्रचार का ठेका लिया है। ऐसे धर्म का ठेका लेकर, धर्म की जय बुलवाने वालों को पता ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं ?
जब कबीर जी आये तब पंडों ने कहाः “हम धर्म की जय कर रहे हैं।” जब सुकरात आये तब राजा और अन्य लोगों ने कहाः “हम धर्म की जय कर रहे हैं।” जब नानक जी आये तब विरोधियों ने उपद्रव कियाः “नानक जी को शहर से बाहर निकाल दिया जाय, क्योंकि वे पाखंड कर रहे हैं। धर्म की जय तो हम कर रहे हैं।”
अनादिकाल से यही होता आया है। भले कितनी ही मुसीबतें आयीं, कितनी ही प्रतिकूलताएँ आयीं, सच्चे भक्तों-श्रद्धालुओं ने संतों की शरण नहीं छोड़ी। कबीर जी के साथ सलूका-मलूका, नानक जी के साथ बाला-मरदाना ऐसे ही श्रद्धालु शिष्य थे, जिनके नाम इतिहास में अमर हो गये।
धन्य है ऐसे शिष्यों को कि जो अलख पुरुष की आरसी के समान ब्रह्मवेत्ता संतों को श्रद्धा-भक्ति से निहारते हैं और उनके साथ अंत तक निभा पाते हैं। वे धनभागी हैं जो निंदा अथवा कुप्रचार के शिकार होकर अपनी शांति का घात नहीं करते। उन्हीं के लिए यह कथन फलित होता हैः
अलख पुरुष की आरसी, साधु का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 117
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *