‘गुरु’ शब्द का अर्थ है – ‘ग’ शब्द से गतिदाता, ‘र’ शब्द से सिद्धिदाता और ‘उ’ शब्द से कर्त्ता, यानी जो गति-मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं, उन्हें गुरु कहा जाता है, इसीलिए ईश्वर और गुरु में प्रभेद नहीं है।
ऐसे गुरु को कभी मनुष्यवत् नहीं समझना चाहिए। अगर गुरु पास में हों तो किसी भी देवता की अर्चना नहीं करनी चाहिए। अगर कोई करता है तो वह विफल हो जाता है।
गुरु ही कर्त्ता, गुरु ही विधाता है। गुरु के संतुष्ट होने पर सभी देवता संतुष्ट हो जाते हैं। ‘ग’ वर्ण उच्चारण करने पर महापातक नष्ट हो जाते हैं, ‘उ’ वर्ण उच्चारण करने पर इस जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं और ‘रु’ वर्ण के उच्चारण से पुर्वजन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।
गुरु का महत्त्व इसलिए है कि शिष्य को संसार-समुद्र से पार कराने की पूरी जिम्मेदारी उनकी है। इसके लिए भगवान के निकट वे उत्तरदायी होते हैं।
जो सर्वशास्त्रदर्शी, कार्यदक्ष, शास्त्रों के यथार्थ मर्म के ज्ञाता हों, सुभाषी हों, विकलांग न हों, जिनके दर्शन से लोक-कल्याण हो, जो जितेन्द्रिय हों, सत्यवादी, शीलवान, ब्रह्मवेत्ता, शान्त चित्त, मात-पितृ हित निरत, आश्रमी, देशवासी हों – ऐसे व्यक्ति को गुरु के रूप में वरण करना चाहिए।
सड़े-जले बीज से पौधे जन्म नहीं लेते, इसलिए बीज का चुनाव ठीक से करना चाहिए। सदगुरु सहज ही नहीं मिलते। दीक्षा लेना साधारण बात नहीं है। उपयुक्त गुरु सर्वदा सुलभ न होने के कारण ही मानव की यह दुर्दशा हुई है।
प्राचीन काल में उपयुक्त शिष्य काफी मिलते थे, इसलिए सदगुरुओं का अभाव नहीं होता था। भगवान के लिए अगर तुम्हारा हृदय व्याकुल होगा तब निश्चित है कि भगवान तुम्हारे सहायक बनकर सदगुरु से मुलाकात करा देंगे। सदगुरु राह चलते नहीं मिलते। जब तक मन में सदगुरु के लिए आशा बलवती न हो, तब तक सदगुरु नहीं मिलते और दिल बेचैन रहता है। सत्शिष्य बने बिना सदगुरु की महिमा पूरी तरह नहीं जान सकते।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2002, पृष्ठ संख्या 25 अंक 115
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