पुणे (महाराष्ट्र) के राजा ने अपने बड़े युवराज श्यामराव का विवाह केवल 12 वर्ष की उम्र में कर दिया। श्यामराव ने इस विवाह का बहुत विरोध किया था। वे बचपन से ही वैरागी थे किंतु पिता और ऊपर से राजा, भला उनका आदेश वे कैसे टालते ! जब वे 20-22 वर्ष के हो गये, तब भी पति-पत्नी के शारीरिक विकारों से दूर रहे। उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई एक पतिव्रता नारी थी। वह सदैव पति की सेवा में तल्लीन रहती। श्यामराव अपनी पत्नी की सेवा से बहुत प्रसन्न थे। एक दिन उन्होंने पत्नी से कहाः “तुमने मेरी बहुत सेवा की है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ। आज तुम मुझसे कुछ माँग लो।”
लक्ष्मीबाई शर्मा गयी। उसने सारी बात अपनी सासु को बता दी और कहाः “भला मैं क्या माँगूँ ? मेरे पास सब कुछ है।”
सासु बोलीः “नहीं, तुम्हारे पास पुत्र नहीं है। अब वही बात फिर से कहे तो तुम उससे एक पुत्र माँग लेना।”
दूसरे दिन श्यामराव ने फिर वही बात दोहरायी तो झुकी हुई आँखों से लक्ष्मीबाई बोलीः “मुझे एक पुत्र दे दीजिये।”
उनको दस महीने बाद एक पुत्र की प्राप्ति हुई। श्यामराव के पिता ने सोचा, ‘अब तो पुत्र का मन संसार में रम गया है इसलिए उसे राजगद्दी सौंपकर जंगल में जा के भगवान का भजन किया जाय।’ किंतु पुत्र तो पहले ही अंदर से संन्यासी था, वह बोलाः “पिता जी ! आप राजपाट क्यों छोड़ना चाहते हैं ?”
“बेटा ! यह सब एक दिन तो छूट ही जाना है। मैं क्यों न इस मोह-माया से दूर जाकर सत्य की खोज करूँ, जो मानव-जीवन का लक्ष्य है।”
“पिता जी ! जो आपका लक्ष्य है, वही मेरा भी लक्ष्य है। आप अब इस उम्र में राजपाट त्यागना चाहते हैं तो समझिये मैंने इसे त्याग ही दिया। मैं भला क्यों इस झूठी मोह माया में पड़ूँ, जिससे आप छूटना चाहते हो !”
फिर भी पिता ने आस नहीं छोड़ी, वे बार-बार समझाते रहे और एक दिन श्यामराव को राजगद्दी सौंपने की तिथि की घोषणा कर दी।
राजकुमार को राजा बनाने की तैयारियाँ जोरों से चल रही थीं। उनका राज्याभिषेक होने में केवल एक दिन शेष था। वे अपने कुछ साथी और जीवन-रक्षक घुड़सवारों के साथ शहर से बाहर निकल गये। धीरे-धीरे अपने तेज-तर्रार तुर्की घोड़े को साथियों से भी अलग ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी राहों से एवं इतने दूर निकल गये कि कोई खोज न पाये। उनकी खोज में अनेक सैनिक दौड़ाये गये किंतु उनका कहीं पता नहीं चला। आखिर निराश हो के राजा ने राजगद्दी अपने छोटे पुत्र बाजीराव को सौंपकर वन-गमन किया।
यद्यपि श्यामराव स्वयं एक उच्च कोटि के साधक थे किंतु फिर भी वे किन्हीं ऐसे महापुरुष की तलाश में थे जिनसे वे गुरुदीक्षा ले सकें। उनको ऐसे ही एक संत मिल गये। उन्होंने उन संत को अपना सब कुछ सौंप दिया और उनकी शरण में चले गये। गुरुआज्ञा से वे ॐकार के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत जप की साधना में डूब गये। शारीरिक और मानसिक साधनाएँ कीं और एक दिन शरीर, इन्द्रियों और मन के पार होकर निजात्मा में स्थित हो गये। आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करने में सफल हो गये। वे श्यामराव से तुलसी साहेब बनकर समाज में विचरण करने लगे। उन्होंने गाँवों-शहरों में बरसों घूम-घूमकर लोगों को सत्य का ज्ञान दिया। हाथरस (उत्तर प्रदेश) में उनका छोटा सा आश्रम है और वे वहीं रह के सत्संग कर लोगों को सन्मार्ग दिखाते रहे।
एक बार एक साहूकार तुलसी साहेब को किसी तरह प्रसन्न कर अपने घर भोजन कराने ले गया। उसने बहुत सेवा की किंतु सेवा के पीछे उसका स्वार्थ था। उसने उनसे माँगा कि वे कृपा करके उसे पुत्रप्राप्ति का वरदान दे दें। इस पर तुलसी साहेब ने अपना सोंटा उठाया और चलते हुए बोलेः “मैं तो वरदान देना चाहता हूँ कि तुम्हारे यहाँ पुत्र हो तो भी भगवान उसे उठा लें और तुम्हें बिल्कुल कंगाल कर दें। तभी तुम इस संसार की इस मोह-माया छोड़कर परमात्मा की खोज में निकलोगे, तभी तुम्हें स्थायी आनंद का पता चलेगा।” महापुरुषों की अपनी अलमस्ती होती है। सामने वाले की योग्यता के अनुसार कुछ देना-न देना, जिसमें सामने वाले का मंगल होता है वही उनके द्वारा होता है।
तुलसी साहेब का मानना है कि ‘समस्त लोगों और समस्त धर्मों का स्वामी एक ही परमात्मा है। उस एक का ही चिंतन करना चाहिए। उस एक ईश्वर को ही जानना चाहिए। छोटे-मोटे देवताओं की पूजा अंततः संसार के आवागमन में ही घुमाती है। हमें इस चक्रव्यूह से बाहर निकलना है। एक ॐकार तत्त्व को जानकर उसी में मिल जाना है। यही मोक्ष है।’ इस तरह वे अद्वैत मत के समर्थक थे।
उन्होंने सन् 1843 में अपना पंचभूतों का चोला छोड़ा और अखंड चैतन्य में समा गये।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 284
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