श्राद्ध में ब्राम्हणों को भोजन करते समय रक्षक मंत्र का पाठ करके भूमि पर तिल बिखेर दे तथा उन द्विजश्रेष्टों के रूप में अपने पितरों का ही चिंतन करे | रक्षक मंत्र इस प्रकार है :
यज्ञेश्वरो यज्ञंसमस्तनेता भोक्ता व्ययात्मा हरीरिश्वरोत्र |
तत्संनिधानाद्पयान्तु सद्यो रक्षांस्यशेशान्यसुराश्च्य सर्वे ||
‘यहाँ संपूर्ण हव्य-फल के भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् श्रीहरि विराजमान है | अत: उनकी सन्निधि के कारण समस्त राक्षस और असुर्गन यहाँ से तुरंत भाग जाये |’(वराह पुराण : १४.३२ )
ब्राम्हणों के भोजन के समय यह भावना करें कि इन ब्राम्हणों के शरीरों में स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज भोजन से तृप्त हो जाये |’
जैसे यहाँ से भेजे हुए रुपये लंदन में पाउंड, अमेरिका में डॉलर एवं जापान में येन के रूप में मिलते है , वैसे ही पितरों के लिए किये गए श्राद्ध का अन्न, श्राद्धकर्म का फल हमारे पितर जहाँ है , जैसे है, उनके अनुरूप उनको मिल जाता है | किंतु इसमें जिनके लिए श्राद्ध किया जा रहा हो, उनके नाम, उनके पिता के नाम एवं गोत्र के नाम का स्पस्ट उच्चारण होना चाहिए |
विष्णु पुराण (३.१६.१६ ) में आता है :
‘श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न, पित्रुगन को वे जैसे आहार के योग्य होते है वैसा ही होकर मिलता है |’