ज्ञान की वृत्ति से अघोर बन जाओ-पूज्य बापू जी

ज्ञान की वृत्ति से अघोर बन जाओ-पूज्य बापू जी


मोकलपुर (उ.प्र.) के आसपास एक अघोरी बाबा रहते थे। वटवृक्ष के नीचे झोंपड़ी थी, बड़े विद्वान भी थे। वे रोज 3 मील दूर चले जाते हाँड़ी ले के फिर घंटों के बाद आनंदित हो के आते। अखंडानंद जी ने पूछा कि “बाबा ! आप रोज कहाँ जाते हैं ?” बोलेः “मैं उधर जाता हूँ, वहाँ मुझे श्रीरामचन्द्र जी के राज्याभिषेक के समय जो वातावरण निर्मित हुआ था, वह प्रत्यक्ष दिखता है और बड़ा आनन्द आता है।”

उन अघोरी बाबा ने एक दिन बताया कि यह पृथ्वी अघोरी है, अघोर माना इसमें चाहे शुभ हो या अशुभ, चाहे इसमें गंदगी डालो, मल-मूत्र करो, चाहे फूल डालो, सब सह लेती है, सब अपने में समा लेती है। जल अघोर है। ब्राह्मण नहाये, कसाई नहाये, साधु नहाये गंगाजल में अथवा किसी जल में कोई कुछ भी करे, जल सब स्वीकार कर लेता है। वायु अघोर है। कैसी भी चीज हो, सबमें वायु का स्पर्श है। तेज अघोर है। अग्नि में कुछ भी डालो – घी डालो चाहे मिर्च डालो, लक्कड़ डालो चाहे मुर्दा डालो, चाहे कुछ भी डालो, सबके लिए अग्नि का खुला द्वार। ऐसे ही आकाश भी परम अघोर है। श्मशान भी आकाश में है, कब्रिस्तान भी आकाश में है और मंदिर भी आकाश में है, दुर्जन भी आकाश में, साधु-संत भी आकाश में। चोर भी आकाश में है, साहूकार भी आकाश में हैं। आकाश तत्त्व सबको धारण करता है।

मन भी बड़ा अघोर है। मन में जहाँ काम आता है वहीं काम से होने वाले दुष्परिणाम का विवेक भी आता है। कई बार मन में क्रोध आता है तो कई बार शांति आती है, कई बार कंजूसी आती है तो कई बार उदारता आती है, कई बार मित्र आते हैं तो कई बार शत्रु भी आ जाते हैं मन में। ऐसे ही बुद्धि भी अघोर है। बुद्धि में भी द्वन्द्व होता रहता है। शुभ निर्णय भी होते हैं, अशुभ भी होते हैं। ‘मैं लाचार हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मेरा कोई नहीं है…’ ऐसा भी आता है और ‘मैं चैतन्यस्वरूप हूँ, अपने भाग्य का आप विधाता हूँ….’ ऐसा भी आता है।

आत्मा अघोर है। वह अच्छे बुरे में एक है। अच्छाई-बुराई संस्कार-विकार से बनती है। वह किसी भी तत्त्व में नहीं होती, तब आत्मा-परमात्मा में कहाँ से होगी ? अघोर शिव है, आत्मा है, परमात्मा है, ब्रह्म है। उस परमेश्वर में, उस अघोर आत्मा में अपनी रूचि प्रीति, अपने ज्ञान को लगायें तो दुःखी होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। जब दुःख आये, चिंता आये तो विचार करें कि ‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि सब अघोर है, उनका अधिष्ठान आत्मा भी अघोर है फिर मैं इनके आऩे-जाने से विषम कैसे हो सकता हूँ ?’ कितना आराम हो जाता है ! संसार दुःखालय है लेकिन दुःख छुयेगा नहीं। ज्ञान की वृत्ति से अघोर बन जाओगे। मन-बुद्धि अघोर है तो अपना अहं अलग से काहे को टकराने को रखता है ? अघोर के साथ मिलकर उस अघोर के आधारस्वरूप ईश्वर में उपाय खोजो, न त्यागी बनो न रागी बनो, अपने अधिष्ठान-स्वरूप को जानने का प्रयत्न करो। जिन्होंने जाना है ऐसे आत्मवेत्ता के दर्शन-सत्संग पाने वाले धन्य हैं ! उनके माता-पिता भी धन्य है ! शिवजी कहते हैं-

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्य कुलोद्भवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ 10 अंक 285

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *