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श्राद्ध के समय हवन करने की विधि


 

पुरुषप्रवर ! श्राद्ध के अवसर पर ब्राह्मण को भोजन कराने से पहले उनसे आज्ञा पाकर शाक और लवनहीन अन्न से अग्नि में तीन बार हवन करना चाहिए । उनमें ‘अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा ।’ इस मंत्र से पहली आहुति , ‘सोमाय पितृमते स्वाहा ।’ इससे दूसरी आहुति  एवं ‘वैवस्वताय स्वाहा ।’ कहकर तीसरी आहुति देने का समुचित विधान है । तत्पश्चात हवन से बचे हुए अन्न को थोडा-थोडा सभी ब्राम्हणों के पत्रों में परोसे ।

श्राद्ध में भोजन कराने का नियम


 

भोजन के लिए बना अन्न अत्यंत मधुर, भोजनकर्ता की इच्छा होना चाहिए । पात्रों में भोजन रखकर श्राद्धकर्ता को अत्यंत सुन्दर एवं मधुर वाणी से कहना चाहिए कि’ हे महानुभावो ! अब आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार भोजन करे |’ फिर क्रोध तथा उतावलेपन को छोड़कर उन्हें भक्तिपूर्वक भोजन परोसते रहना चाहिए | श्राद्ध की विधि पूर्ण कराने के बाद ब्राह्मण मौन होकर भोजन आरंभ करे | यदि उस समय कोई ब्राह्मण हँसता या बात करता है  तो वह हविष्य राक्षसों का भाग हो जाता है | जब ब्राह्मण लोग भोजन करते हो तो उस समय श्राद्धकर्ता पुरुष श्रद्धापूर्वक भगवान् नारायण का स्मरण करे |

अभिश्रवन : वैदिक श्राद्धमंत्र का पाठ


 

श्राद्ध में ब्राम्हणों को भोजन करते समय रक्षक मंत्र का पाठ करके भूमि पर तिल बिखेर दे तथा उन द्विजश्रेष्टों के रूप में अपने पितरों का ही चिंतन करे | रक्षक मंत्र इस प्रकार है :

यज्ञेश्वरो यज्ञंसमस्तनेता भोक्ता व्ययात्मा हरीरिश्वरोत्र |
तत्संनिधानाद्पयान्तु  सद्यो  रक्षांस्यशेशान्यसुराश्च्य सर्वे ||

‘यहाँ संपूर्ण हव्य-फल के भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् श्रीहरि विराजमान है | अत: उनकी सन्निधि के कारण समस्त राक्षस और असुर्गन यहाँ से तुरंत भाग जाये |’(वराह पुराण : १४.३२ )

ब्राम्हणों  के भोजन के समय यह भावना करें कि इन ब्राम्हणों के शरीरों में स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज भोजन से तृप्त हो जाये |’

जैसे यहाँ से भेजे हुए रुपये लंदन में पाउंड, अमेरिका में डॉलर एवं जापान में येन के रूप में मिलते है , वैसे ही पितरों के लिए किये गए श्राद्ध का अन्न, श्राद्धकर्म का फल हमारे पितर जहाँ है , जैसे है, उनके अनुरूप उनको मिल जाता है | किंतु इसमें जिनके लिए श्राद्ध किया जा रहा हो, उनके नाम, उनके पिता के नाम एवं गोत्र के नाम का स्पस्ट उच्चारण होना चाहिए |

विष्णु पुराण (३.१६.१६ ) में आता है :
‘श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न, पित्रुगन को वे जैसे आहार के योग्य होते है वैसा ही होकर मिलता है |’