जो लोग आलसी होकर भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं और अकर्मण्यता के कारण भाग्य को ही सब कुछ मानते हैं, उन्हें प्रेरणा देने हेतु महाभारत में ज्ञानवर्धक वार्ता आती हैः
एक बार युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछाः “पितामह ! दैव (प्रारब्ध) और पुरुषार्थ में कौन श्रेष्ठ है ?”
भीष्म जी ने कहाः “युधिष्ठिर ! यही प्रश्न भगवान वसिष्ठ जी ने लोकपितामह ब्रह्मा जी से पूछा था तो ब्रह्मा जी ने कहा थाः मुने ! किसान खेत में जाकर जैसा बीज बोता है उसी के अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार पुण्य या पाप – जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है। जैसे खेत में बीज बोये बिना वह फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार दैव भी पुरुषार्थ के बिना सिद्ध नहीं होता। पुरुषार्थी मनुष्य सर्वत्र प्रतिष्ठा पाता है परंतु जो अर्कमण्य है वह सम्मान से भ्रष्ट होकर घाव पर नमक छिड़कने के समान असह्य दुःख भोगता है। नक्षत्र, देवता, नाग, यक्ष, चन्द्रमा, सूर्य और वायु आदि सभी पुरुषार्थ करके ही मनुष्यलोक से देवलोक को गये हैं। जो पुरुषार्थ नहीं करते वे धन, मित्रवर्ग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्मी का भई उपभोग नहीं कर सकते। देवताओं में जो भी इन्द्रादि के स्थान पर हैं वे अनित्य देखे जाते हैं। पुण्यकर्म के बिना दैव कैसे स्थिर रहेगा और कैसे वह दूसरों को स्थिर रख सकेगा ? प्रबल पुरुषार्थ करने से पहले का किया हुआ भी कोई (अनिष्टकारक) कर्म बिना किया हुआ सा हो जाता है और वह प्रबल पुरुषार्थ ही सिद्ध होकर फल प्रदान करता है।
न च फलति विकर्मा जीवलोके न दैव
व्यपनयति विमार्गे नास्ति दैवे प्रभुत्वम्।
गुरुमिव कृतमग्रयं कर्म संयाति दैवं
नयति पुरुषकारः संचितस्तत्र तत्र।।
‘इस जीव जगत में उद्योगहीन मनुष्य कभी फूलता-फलता नहीं दिखाई देता। दैव में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगा दे। जैसे शिष्य गुरु को आगे करके स्वयं उनके पीछे चलता है उसी तरह दैव (भाग्य) पुरुषार्थ को ही आगे करके स्वयं उसके पीछे चलता है।’ संचित किया हुआ पुरुषार्थ ही दैव को जहाँ चाहता है, वहाँ-वहाँ ले जाता है। मैंने सदा पुरुषार्थ के ही फल को प्रत्यक्ष देखकर यथार्थरूप से ये सारी बातें तुम्हें बतायी हैं।”
धृतराष्ट्र पुत्रों ने पांडवों का राज्य हड़प लिया था। उसे पांडवों ने पुनः बाहुबल से ही वापस लिया, दैव के भरोसे नहीं। तप और नियम में संयुक्त रहकर कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि क्या दैवबल से ही किसी को श्राप देते हैं, पुरुषार्थ के बल से नहीं ? जैसे थोड़ी सी आग वायु का सहारा लेकर बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ का सहारा पाकर दैव का बल विशेष बढ़ जाता है। जैसे तेल समाप्त हो जाने से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव भी नष्ट हो जाता है। यह दैव तो कायर के मन को तसल्ली देने का उपाय है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं।
जो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से दैव को बाधित करने में समर्थ है, उसके कार्य में दैव विघ्न नहीं डाल सकता और ऐसा मनुष्य कभी दुःखी नहीं होता।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 25 अंक 288
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