भक्तों की लाज रखते भगवान

भक्तों की लाज रखते भगवान


भक्त लाला जी का जन्म सौराष्ट्र प्रांत के सिंधावदर ग्राम में संवत् 1856 चैत्र शुक्ल नवमी को एक समृद्ध वैश्य कुल में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि वे संत नरसिंह मेहता के अवतार थे। बचपन से ही उनमें भगवद्भक्ति और साधुसेवा के प्रति बहुत लगाव था। उनके पिता का नाम बलवंतशाह और माता का वीरूबाई था। बड़े होने पर पिता ने उनको कपड़े के व्यापार में लगा दिया। एक दिन लालाजी जाड़े के प्रभात को दुकान में बैठे थे, तभी भयानक शीत से आक्रांत साधुओं की एक मंडली ने कुछ कम्बल माँगे। लालाजी ने दया से भरकर प्रत्येक साधु को एक-एक कम्बल दे दिया। एक पड़ोसी दुकानदार ने लाला जी के पिता को सारी घटना बतायी। जब उनके पिता ने कम्बलों को गिना तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि दुकान में जितने कम्बल थे उनमें से एक अधिक है ! पड़ोसी के साथ उनके पिता ने साधु-मंडली के पास जाकर विनम्रता के साथ कम्बलों के संबंध में जानकारी ली। साधुओं ने प्रसन्नतापूर्वक लालाजी के दान और उदारता की बड़ी सराहना की। उनके पिता ने ऐसे भक्त पुत्र को पाकर अपने-आपको धन्य समझा।

धीरे-धीरे लाला जी की ख्याति बढ़ने से उनके पीछे-पीछे भक्तों की एक अच्छी खासी मंडली चलने लगी। एक बार वे भक्त-मंडली के साथ सायला ग्राम के ठाकुर मदारसिंह के घर पर आमंत्रित हुए। ठाकुर को एक बड़ा कष्ट था। वे जब भोजन करने बैठते तब उन्हें भोजन सामग्री के स्थान पर रक्त-मांस दिखाई देता जबकि उनका अन्न पवित्र कमाई का था। ठाकुर को यह आशंका हो गयी थी कि कोई मलिन शक्ति आकर खाद्य सामग्री छू देती है या अपना कुछ प्रभाव दिखा रही है। भक्त लाला जी उनको समझाया कि ‘भोजन भगवान को अर्पित करने के बाद ही करना चाहिए।” भक्त मंडली ने भगवान को अर्पण करके भोजन किया तथा ठाकुर ने भी प्रसन्नतापूर्वक प्रसाद पाया। संतकृपा से उस दिन से ठाकुर को भी पवित्र प्रसाद ही दिखने लगा और वे भी लाला जी के भक्त हो गये। संत-आज्ञा का पालन करने से जीवन के कष्टों से मुक्ति तो सहज में मिलती है, साथ ही साथ जीवन सुखमय, रसमय, प्रभुपरायण बन जाता है।

एक बार लाला जी भक्त मंडली के साथ बड़े प्रेम से भगवान का भजन कीर्तन कर रहे थे। भावावेश में वे कभी रोते, कभी हँसते और भजन समाप्त होने पर स्वयं प्रसाद-वितरण करते थे। एक बार एक शिकारी ने, जिसकी झोली में दो मरे हुए पंछी थे, उन्हें कहाः “मैं तब तक प्रसादी नहीं लूँगा, जब तक आप यह न बता देंगे कि मेरी झोली में क्या है।” भक्तराज ने बड़ी विनम्रता और सादगी से उत्तर दियाः “दो जीवित पक्षी हैं।” शिकारी बोलाः “आप भगवान के भक्त होकर असत्य भाषण कर रहे हैं, दोनों ही पक्षी सवेरे ही मेरी बंदूक से मर चुके हैं।” शिकारी ने झोली खोली तो दोनों पक्षी जीवित निकले और आकाश में उड़ गये। उसने भक्त लाला जी की चरणधूलि मस्तक पर लगा ली और वहाँ का वायुमण्डल उनके जयनाद से गूँज उठा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 24 अंक 288

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