स्वामी विवेकानंद जयंतीः 12 जनवरी 2017
संतान पर माता-पिता के गुणों का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। पूरे परिवार में माँ के जीवन और उसकी शिक्षा पर संतान पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। एक आदर्श माँ अपनी संतान को सुसंस्कार देकर उसे सर्वोत्तम लक्ष्य तक पहुँचाने में बहुत सहायक हो सकती है। इस बात को समझने वाली और उत्तम संस्कारों से सम्पन्न थीं माता भुवनेश्वरी देवी।
सुसंस्कार सिचंन हेतु माता भुवनेश्वरी देवी बचपन में नरेन्द्र को अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनातीं। वे जब भगवान श्रीराम जी के कार्यों में अपने जीवन को अर्पित कर देने वाले वीर-भक्त हनुमान जी के अलौकिक कार्यों की कथाएँ सुनातीं तो नरेन्द्र को बहुत ही अच्छा लगता। माता से उन्होंने सुना कि ‘हनुमान जी अमर हैं, वे अभी भी जीवित हैं।’ तब से हनुमान जी के दर्शन हेतु नरेन्द्र के प्राण छटपटाने लगे। एक दिन नरेन्द्र बाहर हो रही भगवत्कथा सुनने गये। कथाकार पंडितजी नाना प्रकार की आलंकारिक भाषा में हास्य रस मिला के हनुमान जी के चरित्र का वर्णन कर रहे थे। नरेन्द्र धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँचे। पूछाः “पंडित जी ! आपने जो कहा कि हनुमान जी केला खाना पसंद करते हैं और केले के बगीचे में ही रहते हैं तो क्या मैं वहाँ जाकर उनके दर्शन पा सकूँगा ?”
बालक में हनुमान जी से मिलने की कितनी प्यास थी, कितनी जिज्ञासा थी इस बात की गम्भीरता को पंडित जी समझ न सके। उन्होंने हँसते हुए कहाः “हाँ बेटा ! केले के बगीचे में ढूँढने पर तुम हनुमान जी पा सकते हो।”
बालक घर न लौटकर सीधे बगीचे में जा पहुँचा। वहाँ केले के एक पेड़ के नीचे बैठ गया और हनुमान जी की प्रतीक्षा करने लगा। काफी समय बीत गया पर हनुमान जी नहीं आये। अधिक रात बीतने पर निराश हो बालक घर लौट आया। माता को सारी घटना सुनाकर दुःखी मन से पूछाः “माँ ! हनुमान जी आज मुझसे मिलने क्यों नहीं आये ?” बालक के विश्वास के मूल पर आघात करना बुद्धिमती माता ने उचित न समझा। उसके मुखमण्डल को चूमकर माँ ने कहाः “बेटा ! तू दुःखी न हो, हो सकता है आज हनुमान जी श्रीराम जी के काम से कहीं दूसरी जगह गये हों, किसी और दिन मिलेंगे।”
आशामुग्ध बालक का चित्त शांत हुआ, उसके मुख पर फिर से हँसी आ गयी। माँ के समझदारीपूर्ण उत्तर से बालक के मन से हनुमान जी के प्रति गम्भीर श्रद्धा का भाव लुप्त नहीं हुआ, जिससे आगे चलकर हनुमान जी के ब्रह्मचर्य-व्रत से प्रेरणा पाकर उसने भी ब्रह्मचर्य-व्रत धारण किया।
बाल मन में देव-दर्शन की उठी इस अभिलाषा को, श्रद्धा की इस छोटी सी चिनगारी को देवीस्वरूपा माँ ने ऐसा तो प्रज्वलित किया कि यह अभिलाषा ईश्वर दर्शन की तड़प बन गयी। और नरेन्द्र की यह तड़प सदगुरु रामकृष्ण परमहंस जी के चरणों में पहुँचकर पूरी हुई। सदगुरु की कृपा ने नरेन्द्र को स्वामी विवेकानंद बना दिया। देह में रहे हुए विदेही आत्मा का साक्षात्कार कराके परब्रह्म-परमात्मा में प्रतिष्ठित कर दिया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 15 अंक 288
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