भय की निवृत्ति न एकांत में रहने से होती है और न भीड़ में रहने से। समाधि एकांत है, कर्म भीड़ है। इनसे भय की निवृत्ति नहीं होती। प्रेम से भी भय की निवृत्ति नहीं होती क्योंकि प्रेमास्पद के अहित की आशंका बनी रहती है। विद्वत्ता और लौकिक बुद्धिमत्ता से भी भय की निवृत्ति असम्भव है क्योंकि उसमें पराजय का भय और भविष्य का भय, चिंता है। जब तक अन्य (द्वैत) की बुद्धि निवृत्त नहीं होती, तब तक पूर्णतया निर्भयता नहीं आतीः
द्वितीयाद्वै भयं भवति। (बृहदारण्यक उपनिषद् 1.4.2)
भय की निवृत्ति के लिए एक खास तरह की बुद्धि चाहिए और वह भी हमारी बनायी हुई बुद्धि न हो, परमार्थ सत्य के अनुरूप (वस्तु-तंत्रात्मक अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसे वैसे ही देखना वस्तु तंत्र कहलाता है और उसे अपनी भावना के अनुसार देखना पुरुष तंत्र कहलाता है। मूर्ति में अपनी भावना के अनुसार भगवान को देखना पुरुष तंत्र है और भगवान को जैसे हैं वैसे ही जानना वस्तु तंत्र है।) बुद्धि होनी चाहिए। यह स्वरूप का अनुभव कराने वाली वेदांत-ज्ञान है। भेद 5 प्रकार के हैं-1. जीव ईश्वर का भेद 2. जीव-जीव का भेद 3. जीव-जगत का भेद। 4. ईश्वर जगत का भेद। 5. जगत-जगत का भेद।
ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है – यह मूर्खता है, ज्ञान नहीं है। जीव-जगत ईश्वर तीनों हैं और अलग-अलग हैं – यह साधारण ज्ञान है। जीव जगत के रूप में भी भगवान ही है। (माने सत्ता सबकी है परंतु स्वगत भेदरूपा भगवत्-सत्ता है।) यह वल्लभाचार्यजी का सिद्धान्त है। ईश्वर ही सब है – यह भागवत ज्ञान है। मैं ही सब हूँ – यह (कश्मीरी) शैव ज्ञान है। किंतु सब नहीं है, ब्रह्म ही है – यह वेदान्त ज्ञान है। वेदांत ज्ञान के बिना भय, दुःख आदि की आत्यांतिक निवृत्ति शक्य (सम्भव) नहीं है।
ज्ञान से ईश्वर सृष्ट संसार का नाश नहीं होता परंतु उसमें जीव ने जो अपनी अविद्या से सृष्टि कल्पित कर ली है उसके कारण होने वाले दुःख का आत्यांतिक नाश हो जाता है। संसार में सुख-दुःख के हेतु बने रहते हैं, उनका इन्द्रियों से संयोग भी होता है, अंतःकरण में अभ्यास-संस्कारजन्य अनुकूल-प्रतिकूल संवेदन भी होता है परंतु आत्मा में सुख-दुःख का प्रतिभास नहीं होता अर्थात् मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ इत्याकारक वृत्ति का उदय नहीं होता। यही योग हैः
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्। (गीता 6.23)
दुःख के साथ संयोग की अवस्था से वियोग (दुःख के साथ न जुड़ने) का नाम योग है, उसे जानना चाहिए।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2017, पृष्ठ संख्या 28 अंक 289
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ