पूज्य बापू जी
आत्मकल्याण की चाहना से एक व्यक्ति ने जाकर किन्हीं संत से प्रार्थना कीः “मुझ पर अपनी कृपादृष्टि कीजिये नाथ !”
उसकी श्रद्धा देखकर गुरु ने उसे मंत्र दे दिया और कहाः “बेटा ! एक वर्ष तक भलीभाँति इस मंत्र का जप करना। बाद में स्नान करके पवित्र होकर मेरे पास आना।”
एक वर्ष पूरा हुआ। वह शिष्य स्नानादि करके पवित्र होकर गुरु के पास जा रहा था, तब गुरु की ही आज्ञा से एक महिला ने इस तरह झाड़ू लगायी कि धूल उस शिष्य पर पड़ी। अपने ऊपर धूल पड़ते देख वह शिष्य अत्यंत आगबबूला हो उठा एवं उस महिला को मारने दौड़ा। वह तो भाग गयी।
वह पुनः गया नहाने के लिए और नहा-धोकर पवित्र हो के गुरु के पास आया। गुरु ने सारी बात तो पहले से जान ही ली थी। गुरु ने कहाः “अभी तो तू साँप की तरह काटने दौड़ता है। अभी तेरे अंदर मंत्रजप का रस प्रकट नहीं हुआ। जा, फिर से एक वर्ष तक मंत्रजप कर फिर मेरे पास आना।”
एक वर्ष बाद पुनः जब वह नहा धोकर पवित्र हो के आ रहा था, तब उस महिला ने धूल तो क्या उड़ायी, उसके पैर से ही झाडू छुआ दी। झाड़ू छू जाने पर वह भड़क उठा किन्तु वह मारने न दौड़ा। फिर से नहा धो के गुरु चरणों में उपस्थित हुआ।
गुरु ने कहाः “बेटा ! अब तू साँप की तरह काटने तो नहीं दौड़ता लेकिन फुफकारता तो है। अभी भी तेरी वैर-वृत्ति गयी नहीं है। जा, पुनः एक वर्ष तक जप करके पवित्र हो के आना।”
तीसरा वर्ष पूरा हुआ। शिष्य नहा धोकर गुरु के पास आ रहा था। इस बार गुरु के संकेत के अनुसार उस महिला ने कचरे का टोकरा ही शिष्य पर उँडेल दिया। इस बार पूरा कचरा उँडेल देने पर भी वह न मारने दौड़ा, न क्रोधित हुआ क्योंकि इस बार जप करते-करते वह जप के अर्थ में तल्लीन हुआ था। उसके चित्त में शांति एवं तत्त्वज्ञान की कुछ झलकें आ चुकीं थी, वह निदिध्यासन की अवस्था में पहुँच गया था। वह बोलाः “हे माता ! तुझे परिश्रम हुआ होगा। मुझ देहाभिमानी के देह के अभिमान को तोड़ने के लिए तू हर बार साहस करती आयी है। मेरे भीतर के कचरे को निकालने के लिए माता ! तूने बहुत परिश्रम किया। पहले यह बात मुझे समझ में न आती थी किंतु इस बार गुरुकृपा से समझ में आ रही है कि आदमी जब भीतर से गंदा होता है, तब ही बाहर की गंदगी उसे भड़का देती है। नहीं तो देखा जाये, तो इस कचरे में भी तत्त्वरूप से तो वह परमात्मा ही है।”
यह कहकर वह पुनः स्नान करके गुरु के पास गया। ज्यों ही वह गुरु को प्रणाम करने गया, त्यों ही गुरु ने उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया और कहाः “बेटा ! क्या चाहिए ?”
शिष्य सोचने लगा कि ‘जब सर्वत्र वही है, सबमें वही है तो चाह किसकी करूँ और चाह भी कौन करे ?’
गुरु की करूणा कृपा बरस ही रही थी। गुरुकृपा तथा इस प्रकार के चिंतन से धीरे-धीरे वह शिष्य खोता गया…. खोता गया….. खोते-खोते वह ऐसा खो गया कि वह जिसको खोजता था वही हो गया। ठीक ही कहा हैः
पारस और संत में बड़ा अंतरहू जान।
एक करे लोहे को कंचन, ज्ञानी आप समान।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2017, पृष्ठ संख्या 6 अंक 289
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