साँईं श्री लीलाशाह जी की अमृतवाणी
ज्ञानी जो भी बाह्य व्यवहार करते हैं वह सब आभासमात्र, आभासरूप समझ के करते हैं परंतु उन्हें अंदर में परमात्मशांति है। बाहर से यद्यपि कुछ विक्षेप आदि देखने में आता है परंतु वे परमात्मशांति में ही स्थित होते हैं। हर हाल और हर काल में एकरस रहते हैं।
जिज्ञासु को बार-बार निश्चय करना चाहिए कि ‘मैं अवश्य मोक्ष प्राप्त करूँगा।’ बस, यही एक इच्छा बार-बार की जाय। स्वयं को ऐसा समझना चाहिए कि ‘मेरे अंतःकरण में आनंद की धाराएँ आ रही हैं।’ बस, उनमें लीन रहना चाहिए।
कौन दुःखी कर रहा है ?
अपने को पहचानो कि ‘हम कौन हैं ?’ सहस्रों-लाखों, अरबों लोग अपने को शरीर आदि समझते हैं। वे शरीर नहीं हैं, एक आनंद-ही-आनंदस्वरूप हैं।
मनुष्यों को परिस्थितियाँ दुःख नहीं देतीं किंतु परिस्थितियों का विचार ही उन्हें दुःखी कर रहा है।
(शरीर को स्वस्थ रखने के लिए थोड़ा खाओ, समय पर खाओ और चबाकर खाओ। 32 बार दाँतों से चबाकर निगलो तो शरीर स्वस्थ रहेगा।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2017, पृष्ठ संख्या 10 अंक 290
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