संस्कृत में संधिकाल को पर्व बोलते है | जैसे सर्दी पूरी हुई और गर्मी शुरू होने की अवस्था संधिकाल है | होली का पर्व इस संधिकाल में आता है | वसंत की जवानी ( मध्यावस्था ) में होली आती है, उल्लास लाती है, आनंद लाती है | नीरसता दूर करती है और उच्चतर दायित्व निर्वाह करने की प्रेरणा देती है |
होली भुत प्राचीन उत्सव है, त्यौहार है | इसमें आल्हाद भी है, वसंत ऋतू की मादकता भी है, आलस्य की प्रधानता भी है और कूद-फाँद भी है | यह होलिकात्सव का प्रल्हाद जैसा आल्हाद, आनंद, पलाश के फूलों का रंग और उसमें ॐ … ॐ … का जप तुम्हारे जीवन में भी प्रल्हाद का आल्हाद लायेगा |
प्रल्हाद हो जीवन का आदर्श
जिसने पुरे जगत को आनंदित-आल्हादित करनेवाला ज्ञान और प्रेम अपने ह्रदय में सँजोया है, उसे ‘प्रल्हाद’ कहते है | जिसकी आँखों से परमात्म-प्रेम छलके, जिसके जीवन से परमात्म-रस छलके उसीका नाम है ‘प्रल्हाद’ | मैं चाहता हूँ कि आपके जीवन में भी प्रल्हाद आये |
देवताओं की सभा में प्रश्न उठा : “सदा नित्य नविन रस में कौन रहता है ? कौन ऐसा है जो सुख-दुःख को सपना और भगवान को अपना समझता है ? ‘सब वासुदेव की लीला है’ – ऐसा समझकर तृप्त रहता है, ऐसा कौन पुण्यात्मा है धरती पर ?”
बोले : “प्रल्हाद !”
:प्रल्हाद को ऐसा ऊँचा दर्जा किसने दिया ?”
“सत्संग ने ! सत्संग द्वारा बुद्धि विवेक पाती है एयर गुरुज्ञानरूपी रंग से रंगकर सत्य में प्रतिष्ठित हो जाती है |”
आप भी प्रल्हाद की तरह पहुँच जाइये किन्ही ऐसे संत-महापुरुष की शरण में जिन्होंने अपनी चुनरी को परमात्म-ज्ञानरुपी रंग से रंगा है और रंग जाइये उनके रंग में |
धुलेंडी का उद्देश्य
होली में नृत्य भी होता है, हास्य भी होता है, उल्लास भी होता है और आल्हाद भी होता है लेकिन उल्लास, आनंद, नृत्य को प्रेमिका-प्रेमी सत्यानाश की तरफ ले जायें अथवा धुलेंडी के दिन एक-दुसरे पर धुल डाले, कीचड़ उछालें, भाँग पियें – यह होली की विकृति है | यह उत्सव तो धुल में गिरा, विकारों में गिरा हुआ जीवन सत्संगरूपी रंग की चमक से चमकाने के लिए है | जो विकारों में, वासनाओं में, रोगों में, शोकों में, धुल में मिल रहा था, उस जजीवन को सत्संग में, ध्यान में और पलाश के फूलों के रंग से रँगकर सप्तधातु, सप्तरंग संतुलित करके ओज०ब्ल, वीर्य और आत्मवैभव जगाने के लिए धुलेंडी का उत्सव है |
-Pujya Bapuji